Monday, December 10, 2012

मृगतृष्णा


कनु ! याद हैं ना , शाम को बिल्कुल  तैयार रहना , मैं ऑफिस से जल्दी घर जाऊंगा "' कहते  हुए शरद ने शरारत से मेरे मेरे गाल पर एक हलकी चपत लगा दी | मेरा रंग शर्म से सुर्ख लाल हो उठा। घर  के दरवाजे पर मैंने शरद को टिफ़िन और रुमाल पकडाया | ड्राईवर ने कार का दरवाजा खोला , शरद मुस्कराते  हुए , हाथ से इशारा कर कार में बैठ गए।

मैं दरवाजे पर तब तक खड़ी रही जब तक कार आँखों से ओझल नहीं हो गई। आज मेरी शादी की पहली साल गिरह है। आज के  दिन ही   शरद और मैं शादी के पवित्र बंधन में बंध  कर हमेशा एक दुसरे के हो गए थे। लेकिन क्या शरद से मेरी पहचान केवल 12 महीनों की है? मेरे मस्तिष्क में यादों के पन्ने पलटने लगे और में अतीत की गहराइयों  में उतरने लगी।

मैं कनुप्रिया,  अपने माँ -पिता की इकलौती संतान थी।मेरे पिता एक मध्यमवर्गी सरकारी मुलाज़िम थे।मेरे जन्म के बाद से ही सभी कहते थे की भगवान ने मुझे बहुत फुरसत में बनाया है। मेरा रंग ऐसा था मानो  मलाई में किसी ने सिंदूर मिला दिया हो, मेरे तीखे नैन नक्श , सुडौल कद- काठी और कमर तक लहराते काले रेशमी बाल बरबस सबका ध्यान खींच लेते थे। बचपन से ही मुझे अपनी सुन्दरता का गुमान हो चूका था। मैं जहाँ से निकलती , सभी नज़रें मेरी तरफ उठ  जाती थी , जिसकी मैं शीघ्र ही अभ्यस्त हो चुकी थी |

मेरे माता-पिता हमेशा मेरी फरमाईशों  की तालीम में लगे रहते थे। अपने माता-पिता के अंधे -प्यार और अपनी बेपनाह सुन्दरता के नशे में डूबते हुए मैंने कॉलेज मैं पैर रखा। स्कूल के अनुशासन  से मुक्त स्वछंद माहौल  से मेरे पर और खुल गए थे।

कॉलेज में जब मुझे "'मिस फ्रेशर"' का अवार्ड मिला जो मेरे अहंकार को चार चाँद लगाने के लिए काफी था। कॉलेज का हर दूसरा या तीसरा बाँदा मुझसे एक घड़ी बात करने के लिए ललायित  रहता था। मैं जानती थी की मेरी प्रसिद्धि मेरी क्लास की लड़कियों  की आँखों की किरकिरी बन चुकी थी, लेकिन मुझे इसकी परवाह कहाँ थी ?

अपनी क्लास में एक शरद ही था , जो मुझे ढेले भर भी पसंद नहीं था। उसके बारे में इतना  ही मालूम था की वह एक अनाथ था और स्कॉलरशिप के सहारे अपनी पढाई कर रहा था जिस सुन्दरता की मुझे हमेशा दरकार रहती थी उसका लेस मात्र भी उसमें नहीं था ।अबनूस की तरह काला रंग, बेतरतीब ढंग से बड़ी हुई दाढ़ी, आँखों पर पॉवर वाला चश्मा , तिस पर मुचड़ा -सुचडा खादी  का कुर्ता , रंग उडी जीन्स और बाबा आदम के ज़माने का कंधे पर थैला .उसको देखने पर मुझे लगता मनो साक्षात् बदसूरती इन्सान के वेश में गई हो।

जब कक्षा के अन्य लोग मधुमक्खी के छत्ते के भांति मेरे इर्द-गिर्द मंडरा कर मेरी सुन्दरता की तारीफ कर रहे होते थे तो शरद अलग-थलग किताबों में सिर डाले बैठा रहता था।

मेरा जन्मदिन मानो इतिहास की कोई तारीख हो जो सबको याद थी। उस दिन सुबह उठ कर मैंने रानी रंग का सूट पहना और अपने विशाल केश -राशि  को कमर के ऊपर खुला छोड़ दिया और शीशे में अपनी ही सुन्दरता पर मोहित होते हुए मैंने कॉलेज के लिए बस पकड़ी।

कॉलेज के बस स्टॉप पर उतरते ही पीछे से आवाज आई "कनु !प्लीज ज़रा रुकना तो "| पीछे मुड़ कर देखा तो शरद खड़ा हुआ था | सुबह-सुबह उसके दर्शन करने से मुझे मतली आने लगी। मैंने उपेक्षित भाव से पूछा "क्या है?""

""हैप्पी बर्थ  र्थ डे टू  यू "' कहते हुए शरद ने झटपट मेरे हाथों में एक रोल-पेपर थमा दिया। बोझिल मन से मैंने " थैंक्यू "' कहा।

शरद मेरे साथ ही चल रहा था। मुझे अपने ऊपर बहुत गुस्सा रहा था की इस बन्दर को मुँह  लगाने की क्या जरुरत थी ? मुझे लगा की कॉलेज की प्रत्येक आँख मुझे ही देख रही थी की मैं इस अजूबे के साथ क्या कर रहीं हूँ।

शीघ्र मुझे अपने मित्रों का ग्रुप दिखाई दिया , मैं शरद से बिना कुछ कहे वहां चल दी।

ग्रुप ने मुझे जन्मदिन की बधाई दी, घडी, पेन सेट , इत्र ,पर्स जैसे कीमती तौहफे दिए।

उस दिन संजय ने बहुत शानदार पार्टी दी थी जिसमें क्लास के सभी स्टूडेंट शामिल हुए थे, लेकिन शरद ने लाइब्रेरी  जाने के बहने कन्नी काट ली थी।

घर आकर में उन उपहारों को समेट कर रहने लगी तो शरद के दिए रोल-पेपर पर नज़र गई। खोल कर देखा तो उसमें मेरा एक बहुत सुन्दर स्केच बना था और नीचे मोतियों जैसे अक्षरों में लिखा थाटू डियरेस्ट  कनुप्रिया " . मुझे उसके ऊपर बहुत गुस्सा आया "' उफ्फ ! यह मुँह और मसूर की दाल , कभी आईने में अपनी सूरत देखी है ? " उस कागज के टुकड़े-टुकड़े कर मैंने उसे कूड़ेदान के हवाले किया।

समय पंख लगा कर उड़ता गया  , मैं अपने अहंकार के  नशे में डूबती चली गई। दोस्तों से गप्पें लड़ना, सैर-सपाटा ही मेरे काम थे। शरद लगातार क्लास में प्रथम आता गया लेकिन मेरे लिए अभी भी वह  घृणा का पात्र था।

कॉलेज के अंतिम वर्ष में मेरे लिए एक बहुत धनी  परिवार का रिश्ता आया था। विनय मुझे देखने जब अपने माँ -बाप के साथ आया था तो मैंने उसे अपनी कनखियों से देखा था , मुझे लगा की "विज्ञापन " का कोई माडल आकर बैठ गया हो | मेरे माता-पिता इतने बड़े घर से मेरा रिश्ता जाने से मेरे भाग्य की सरहाना करते नहीं थकते थे।

सफल बिज़नेस -मेन होने के साथ -साथ विनय काफी सुन्दर था। लेकिन उसकी स्मार्ट नेस से ज्यादा मुझे उसकी दौलत की दरकार थी

सगाई में विनय ने मुझे हीरे की अंगूठी पहनाई तो मुझे लगा की मैंने अपनी सुन्दरता के बल पर दुनिया पर फतह पा ली हो। मेरी अनुभवी माँ ने शीघ्र ही गिन लिया था की अंगूठी में छोटे-बड़े इक्कीस हीरे जड़े हुए थे। मुझे याद है मेरी अंगूठी को देख कर मेरी क्लास की कई लड़कियों के दिलों में इर्शिया के बवंडर उठाने लगे थे।

मुझे गुमान था मैंने जो चाह मुझे मिला। मेरे माँ -बाप कभी  भी मेरी राह का रोड़ा नहीं बने थे अतः सगाई के बाद वे मुझे विनय के साथ घूमने -फिरने  से नहीं रोकते थे।

मैं भी विनय के साथ बड़े-बड़े होटलों कलबों में जा कर अपने भाग्य पर इतराती थी। विनय के शराब पीने  पर मुझे कोई एतराज़ नहीं था क्योंकि मेरी नज़र में यह अमीरियत की निशानी थी।

अधिक प्रकाश अंधकार को जन्म  देता हैं, क्योंकि इसमें आंखें बंद हो जाती हैं। में भी रईसी की आड में विनय की अनेक कमजोरियों की नज़रंदाज़ करती रही थी।

एक रात अधिक शराब पीने की वज़ह से विनय स्टीयरिंग  पर अपना नियंत्रण खो बैठा और हमारी कार एक ट्रक से टकरा गई।

इसके बाद मेरी आँख अस्पताल में ही खुली। मेरे ऊपर वज्रपात हो गया, जब मैंने देखा की , जहर फैलने के डर  से डॉक्टरों ने मेरी बाई टांग घुटने से काट दी थी। मेरा मन चीत्कार कर उठा। विनय को कुछ मामूली चोटें ही आई थी लेकिन मेरे ऊपर कहर टूट पड़ा था।

अस्पताल से कुछ दिनों के बाद मुझे डिस्चार्ज कर दिया गया। कुछ दिनों से मैंने नोट किया की विनय मुझसे मिलने  कम ही आता था , आता भी तो अनमने ढंग से बातें करता था ।

एक दिन वह मनहूस घडी भी गई जिसकी मुझे आशंका थी एक दिन विनय आया और धीरे-धीरे कहने लगा "' कनु प्लीज मुझे गलत मत समझना , मैं एक बहुत महत्वकांक्षी इन्सान हूँ। जिन्दगी की जिस दौड़ में, मैं आगे निकल जाना चाहता हूँ , उसमें तुम बैसाखियों के सहारे मेरा साथ नहीं दे सकती हो। आइ होप यू कैन अंडरस्टैंड मी  '' कह कर विनय हमेशा के लिए चला गया। मुझे याद है उस दिन में कितना रोई थी।

मेरे पिता विनय के घर जा कर कितना गिड़गिड़ाय  थे। "'मेरी लड़की का जीवन बर्बाद मत कीजिये , आजकल तो लकड़ी की टांग लगा देने से लंगड़े पन  का बिल्कुल  भी पता नहीं चलता है, हमारी इज्जत आपके हाथों में हैं "' लेकिन वे लोग नहीं पसीजे और उन्हें अपमानित कर अपने घर से बाहर निकाल दिया।

मेरे माँ -बाप जीते जी मर चुके थे। मेरी शादी की चिंता उन्हें खाई जाती थी। मेरे भविष्य के बारे में सोच-सोच  वे अपना सिर धूना करते थे।

धीरे -धीरे मैं सबकी सहानुभूति का पात्र बन गई। पहले मेरे प्रत्येक कदम पर लाखों दिल कुर्बान होते थे , लेकिन अब तो चन्द्रमा को भी ग्रहण लग चूका था। मेरी मित्र-मंडली भी धीरे-धीरे मुझसे कन्नी काट चुकी थी।

लकड़ी का पैर लगते ही शीघ्र ही में उसकी अभ्यस्त हो गई। गौर से देखने पर ही मेरी विकलांगता का पता चलता था। परन्तु कोई भी पुरुष मुझसे शादी करने को तैयार नहीं हुआ।

फिर अचानक एक दिन मेरे घर मेरी शादी का एक प्रस्ताव आया लड़का उच्च सरकारी ऑफिसर था, उसके मां -बाप नहीं थे। वह अपने दूर के मौसा-मौसी के साथ मुझे देखने आने वाला था।

मेरे माता-पिता ने लड़के वालों की खातिरदारी में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। मैं चाय की ट्रे लेकर अन्दर

 आई तो मुझे महसूस हुआ की कई आंखें मेरा निरिक्षण कर रही थी। धड़कते हुए दिल से मैं मुंह नीचे कर सोफे पर बैठ गई।

मेरे पिता ने थोडा सकपकाते हुए सहमी आवाज़ में कहामेरी बेटी कनु लाखों में एक है , मगर हम यह बात आपसे छिपाना नहीं चाहतें हैं ........"

उनकी बात पूरी होने से पहले ही लड़के की मौसी बोल उठी "" हमें सब मालूम है भाई साहेब, दुर्घटना पर किसका बस चलता है ? हमें आपकी लड़की पसंद है "

मैं जो नकारात्मक जबाब सुनने के लिए बैठी थी, आँख उठा कर देखा तो सामने शरद बैठा हुआ था , जो एकटक मुझे ही देख रहा था।

मुझसे अब और नहीं बैठा गया , मैं दौड़ कर अपने कमरे में आई और बिस्तर पर कटे वृक्ष की भांति गिर कर रोने लगी।

इतने में दरवाजे पर आवाज आई "कनु'" मैंने सिर उठा कर देखा शरद खड़े हुए थे।

शरद वहीँ पलंग के कोने में बैठ गए और धीरे -धीरे कहने लगे "" कनु मैं शुरू से ही तुमसे प्यार करता था। प्रेम प्रतिकार नहीं चाहता है, प्रेम यदि बदले में कुछ चाहने की आशा करे तो वह वासना में बदल जाता है। मैं जानता  हूँ की तुम मुझसे बेहिसाब नफरत करती होती हो, लेकिन  मैंने हमेशा  तुमें प्रेम ही किया आज भी मैं तुमसे शादी सहानुभूतिवश नहीं कर रहा हूँ बल्कि मैंने तुम्हारी उस सुन्दरता से प्रेम किया है जो नश्वर नहीं है "


                      

शरद कहते जा रहे थे मैं रोती  जा रही थी। इन आंसुओं से मेरा अंतर्मन निर्मल हो रहा था । शरद के विशाल व्यक्तित्व के सामने दुनिया के सभी पुरुष मुझे अत्यंत बौने प्रतीत हो रहे थे। जिस सुन्दरता के पीछे आज  तक भागती थी, उसकी प्रतिमूर्ति आज मेरे सामने थी। ना जाने कितनी देर तक मैं  शरद के कंधे पर सिर रख कर रोती  रही थी।

आज हमरी शादी की सालगिरह है।आज के दिन मैंने मृगतृष्णा के संसार को छोड़ कर यथार्थ का हाथ पकड़ा था।

विचारों के क्रम से मैं बाहर आई। शाम को शरद के साथ बिताई जाने घड़ियों को याद कर, मेरा मन रोमांचित हो उठा। मैं जानती हूँ की शरद मुझसे बहुत प्यार करते है।

                       

 

 

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