महाराज द्रुपद के यहां अग्निकुंड से पैदा हुई अपने समय की सर्वश्रेष्ट सुंदरी और कुरुक्षेत्र की सर्वाधिक बुद्धिमती द्रौपदी आज आपने स्त्री होने,
सुन्दर होने और बुद्दिमान होने का मुल्य
चूका रही थी | अभूतपूर्व अनिंद्य सौन्दर्य की स्वामिनी ,सौन्दर्यगर्विता नारी, पांचाली पड़ी थी निस्तेज और असहाय सी भूमि पर । श्यामवर्ण के कमल के सामान सुकुमार और सुन्दर कृष्णा का शरीर ज्वालामुखी के सामान धधक रहा था , दुःख, त्रासदी
और अपमान
से उस अद्वितीय रूप-लावण्य युक्त
ललना का मुखमंडल
तपते हुए लोह खंड के सामान
तमतमा रहा था | दु:शासन द्वारा खींचे
गए उसके काले घुँघराले केश कुचले
साँप की तरह फुंफकार रहे थे |
सभा पूरी खचाखच भरी हुई
थी | वहां धृतराष्ट्र थे, पितामह थे
, द्रोणाचार्य थे | सैकड़ों सभासद थे | वयोवृद्ध विद्वान थे , शूरवीर
है और सम्मानित पुरुष भी
थे | ऐसे लोगों के
मध्य पांडवों की
वह महारानी, जिसके
केश राजसूय के
अवभूथ स्नान के
समय सिंचित हुए
थे, जो कुछ
सप्ताह पूर्व ही
चक्रवर्ती सम्राट के
साथ साम्राज्ञी के
रूप में समस्त
नरेशों द्वारा वंदित
हुई थी, रजस्वला होने की
स्थिति में , असहाय अवस्था में केश पकड़कर घसीट
लाई गई और
अब उसे नग्न
करने का आदेश
दिया जा रहा
था |
दु:शासन
उसे भरी
सभा में नग्न
करना चाहता था।
भीष्म, द्रोण ने
आंखें मूंद लीं।
विदुर उठकर चले
गए, सर्वत्र हाहाकार मच गया। आचार्य द्रोण, पितामह भीष्म, धर्मात्मा कर्ण... द्रौपदी ने देखा कि उसका
कोई सहायक नहीं| कर्ण तो उलटे दु:शासन को प्रोत्साहित कर रहा है और भीष्म , द्रोण आदि
बड़े-बड़े धर्मात्माओं के मुख दुर्योधन द्वारा अपमानित होने की आशंका से बंद हैं और
उनके मस्तक नीचे झुके हैं |
द्रोपदी अपने त्रिभुवन विख्यात शूरवीर पतियों की ओर लाचार दृष्टि से देखती
है | महा व्याकुल होकर
उसके अश्रुपूरित दीन नेत्र इधर उधर देखा रहे हैं की कोई
तो उसकी रक्षा करे , किंतु पांडवों ने लज्जा तथा शोक के कारण मुख दूसरी ओर कर
लिया था | सभा में रोते-रोते द्रौपदी ने सभी सभासदों से अपनी रक्षा चाही। किसी ओर अपना
कोई सहायक और रक्षक
न जान कर वह असीम निराशा और वेदना के दलदल में जा गिरी |
एक वस्त्रा
अबला नारी !! उसके एकमात्र वस्त्र को दस हजार
हाथियों के बलवाला कुटिल दु:शासन अपनी शक्तिशाली भुजाओं
के बल से झटके से खींच रहा था | कितने क्षण द्रौपदी
वस्त्र को पकडे रह सकेगी? आज कोई नहीं, कोई नहीं,
उसकी सहायता करने वाला | उसके नेत्रों से अश्रुओं
की झड़ी उमड़ने लग गई,
दोनों हाथ वस्त्र छोड़कर आपने आप ऊपर उठ गए | वह भूल गई संसार, भूल गई राजसभा, भूल गई अपने वस्त्र , भूल गई अपना शरीर , भूल गई अपनी मर्यादा
…… याद रह गया उसे केवल अपना सखा |
वह कातर
आर्तस्वर में पुकार उठी, " हे द्वारकावासी! हे
गोविंद! हे सच्चिदानंद स्वरूप प्रेमघन! हे गोपी वल्लभ! हे सर्वशक्तिमान प्रभु ! कौरव मुझे अपमानित
कर रहे हैं, क्या यह बात आपको मालूम नहीं है। हे नाथ! हे रमानाथ! हे व्रजनाथ! हे अर्तिनाषन
जनार्दन! मैं कौरवों के समुद्र में डूब रही हूं, मेरी रक्षा कीजिए। हे श्रीकृष्ण! आप
सच्चिदानंद स्वरूप महायोगी हैं। आप सर्वस्वरूप एवं सबके जीवनदाता हैं। हे गोविंद! मैं
कौरवों से घिरकर बड़े संकट में पड़ गई हूं। आपकी शरण में हूं। आप मेरी रक्षा कीजिए।
इस पुकार में पूर्ण समर्पण है। हे कृष्ण! मुझे इस संसार में अब आपके
अतिरिक्त और कोई मेरी लाज बचाने वाला दृष्टिगत नहीं हो रहा है। अब आप ही
इस कृष्णा की लाज रखो। हे
दयामय ! मेरा उद्धार करो |"
द्रौपदी आर्त भाव से पुकारने लगी | बेसुध होकर पुकारती रही उस आर्तिनाशन असहाय के सहायक करुणार्णव को | उसे पता नहीं था कि क्या हुआ या हो रहा है | वह अनभिज्ञ थी उन रहश्यमयी घटनाओं से जो घट रही थी उसके चारो ओर | आज उसकी मर्मान्तक पुकार प्रार्थना बन गई । आज पांचाली ने कुछ नहीं हो कर कृष्ण को पुकारा । अब तक कृष्ण उसका था , लेकिन आज द्रोपदी कृष्ण की हो गई | अपने अस्तित्व को पूर्ण रूप से विस्मृत कर उसने पूर्ण शरणागति प्राप्त कर ली ।
द्रौपदी आर्त भाव से पुकारने लगी | बेसुध होकर पुकारती रही उस आर्तिनाशन असहाय के सहायक करुणार्णव को | उसे पता नहीं था कि क्या हुआ या हो रहा है | वह अनभिज्ञ थी उन रहश्यमयी घटनाओं से जो घट रही थी उसके चारो ओर | आज उसकी मर्मान्तक पुकार प्रार्थना बन गई । आज पांचाली ने कुछ नहीं हो कर कृष्ण को पुकारा । अब तक कृष्ण उसका था , लेकिन आज द्रोपदी कृष्ण की हो गई | अपने अस्तित्व को पूर्ण रूप से विस्मृत कर उसने पूर्ण शरणागति प्राप्त कर ली ।
सभा में
कोलाहल होने लगा | लोग आश्चर्यचकित रह गए | दर्पयुक्त , मदमस्त दु:शासन पूरी शक्ति से द्रौपदी के वस्त्र खींच रहा था | वह हांफने लगा था, थक गईं थीं दस सहस्त्र
हाथियों का बल रखने वाली उसकी शक्तिशाली भुजाएं | द्रौपदी की वस्त्र से वस्त्रों का अंबार निकलता जा रहा था | वस्त्र का एक विशाल पर्वत
निर्मित हो गया था| वह दस हाथ का वस्त्र पांचाली के शरीर से तनिक भी हट नहीं रहा था | वह तो
अनंत हो चूका था | हारकर अहंकारी दु:शासन लज्जित हो कर बैठ गया |
दयामय द्वारकानाथ
रजस्वला नारी के उस अपवित्र वस्त्र में ही प्रविष्ट हो गए थे | आज अनादि स्वरुप कृष्ण ने वस्त्रावतार
धारण कर लिया था और अब उनके अनंता का ओर-छोर कोई कैसे पा सकता था?
अपनी सखी की मर्यादा
ढकने के लिए कृष्ण
आज स्वयं
उसकी चीर बन गए थे |
कहते हैं बाद में वासुदेव को उनकी सखी द्रोपदी ने उपालंभ दिया " हे वासुदेव ! मेरे अभिन्न सखा ! मेरे आर्त स्वर से पुकारने पर भी तुम इतनी देरी से क्यों आये थे । "
तब वासुदेव बोले " कृष्णे !! तुमने मुझे द्वारका से बुलाया , वहां से आने में समय लगता ही । मैं तो तेरे पास तेरे ह्रदय में अंतर्यामिरुप से उपस्थित था , यदि यहाँ से पुकारती तो शीघ्र आ जाता । "
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