गर्भपात के विषय में वाद-विवाद लंबे समय से है | बहस का स्वरुप अधिकतर निजी - स्वार्थ , धार्मिक - प्रकृति, नैतिक - मकसद और दार्शनिक - पहलूओं के मध्य झूलता रहता है ।
मानवाधिकार के तहद हर मानव को जीने का अधिकार है। गर्भ से बाहर आने के बाद भारत में पालन करने के लिए कई कानून हैं , लेकिन गर्भ के अन्दर भ्रूण हत्या के लए कोई कठोर कानून नहीं है। गर्भस्थ शिशु पुकार नहीं सकता अपने बचाव के लिए चिल्ला नहीं सकता इसलिए उसकी हत्या करने पर सम्बंधित लोगों में अपराध की भावना भी जागृत नहीं होती है।
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नेशनल राईट तो लाइफ के अनुसार विश्व में केवल 7 % गर्भ पात ही बलात्कार या चिकित्सा कारणों से होते हैं, जबकि 93 % गर्भ -पात केवल सुविधा , सहूलियत और सामाजिक कारणों के कारण होते हैं।
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अल्ट्रा- साउंड इमेजिंग उपकरण का विकास गर्भस्थ शिशु की रक्षा हेतु जाँच के लिए हुआ था, ताकि यदि गर्भस्थ शिशु का उचित विकास न हुआ हो तो , उसका उपचार गर्भ में ही किया जा सके।परन्तु आज कल अधिकतर इस तकनीक का प्रयोग लिंग -परीक्षण के लिए किया जाता है। ऐसे परिक्षण में अगर अगर पता चलता है की भ्रूण मादा हैं तो उसका अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है।उसे जन्मने से पहले ही मृत्यु के हवाले कर दिया जाता है।
भ्रूण एक स्वतंत्र जीवित इकाई है
गर्भ-पात के समर्थक कहते हैं की भ्रूण अपनी माँ के लाइफ सपोर्ट सिस्टम के ऊपर पूर्ण रूप से आश्रित रहता हैं, माँ के गर्भ के बाहर उसका जीवन संभव नहीं है अतः गर्भ के अन्दर उसको एक पूर्ण-जीवित-इकाई मानना उचित नहीं है।
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उनकी यह दलील उचित नहीं है क्योकि कोमा में जाने वाले व्यक्ति एवं मधुमय, किडनी-फेलियर या अन्य बिमारियों से ग्रसित लोग भी काफी लम्बे समय तक जीवन-समर्थित -सिस्टम पर जिन्दा रहते हैं, तो क्या उनके जीने का अधिकार समाप्त हो जाता है? या उन्हें एक पूर्ण-जीवित-इकाई नहीं माना जाता है?
क्या गर्भ- पात से गर्भस्थ शिशु को पीड़ा होती है ?
गर्भ-पात के हिमायतियों का कहना है प्रारंभिक अवस्था में भ्रूण के मस्तिष्क का सेरिब्रल-कोर्टेक्स विकसित नहीं होता ही, अतः उन्हें गर्भ-पात से उत्पन्न हुई शरीरिक पीड़ा का अनुभव नहीं होता है।
विज्ञान ने अनेक परिक्षण-अन्वेषण-अनुसन्धान कर यह सिद्ध किया है की शरीरिक पीड़ा अनुभव करने के लिए मस्तिष्क के थाल्मस का होना ही प्रयाप्त है, जो भ्रूण के 8 वे हफ्ते में पूर्ण विकसित हो जाता है।
गर्भवस्था के 6 वे हफ्ते में भ्रूण के मस्तिष्क की तरंगों को मापा जा सकता है।प्रत्येक शरीर के अंग बनाने शुरू हो जाते हैं, तथा ऊँगली के छाप तैयार हो जाते हैं।
6-8 हफ्ते में भ्रूण की नाड़ी -संस्थान संरचना उपस्थित होती है। किसी भी शरीरिक प्रतिक्रिया को अनुभव करने के लिए मुख्यत तीन अवयवों की आवश्कता पड़ती है :
1. संवेदन नाड़ी तंत्र [sympathetic nervous system] जो दर्द का अनुभव करती है और उसे सन्देश के रूप में मस्तिष्क को भेजती है।
2.मस्तिष्क के आधार में स्थित थाल्मस जो सन्देश को ग्रहण करता है।
3. मोटर नाडी जो सम्बंधित अंग को सन्देश भेजती है।
ये तीनों अवयव 8 हफ्ते के भ्रूण में उपस्थित रहते हैं। वैज्ञानिकों ने देखा की 8 हफ्ते के भ्रूण के पैरों के तलवों में अगर कोई नुकीली या पैनी वस्तु चुभो दी जाये तो वह न केवल अपना पैर खीच लेता है वरन उसके चहरे पर पीड़ा की अनुभूति के भाव की साफ झलक होती है। इतना ही नहीं उसकी ह्रदय-गति में परिवर्तन आ जाता है और वह गर्भ में अपनी स्तिथि को बदल लेता है ।
अल्ट्रा -साउंड के माध्यम से भ्रूण का E C G एवं E E G का परिक्षण क्या गया तो पाया गया की बाहरी प्रतिक्रिया के प्रति भ्रूण की प्रतिक्रिया संवेदना से भरी होती है।
भ्रूण-शास्त्र के जन्मदाता सर विलियम लिल्ली के अनुसार गर्भस्थ भ्रूण न केवल स्पर्श,पीड़ा,ध्वनि के प्रति सम्वेदनशील होता हैं वरन गर्भ में प्रकाश की इंटेंसिटी घटने-बड़ने और amniotic fluid के तापमान और स्वाद में परिवर्तन के प्रति भी प्रतिक्रिया करता है।
गर्भपात की अमानवीय प्रक्रियाएं
12 हफ्ते के भ्रूण के अल्ट्रासाउंड विडियो के साफ दिखाई देता है की गर्भ-पात में प्रयोग में ली जाने वाली सेक्शन-डिवाइस [Vacuum Aspiration Abortion ] से बचने के लिए भ्रूण पूरी कोशिश करता है। इसके फलस्वरूप उसकी ह्रदय-गति दो गुनी हो जाती है। सक्शन डिवाइस में तेज धार वाले कट्टर लगे होते हैं जिसे भ्रूण के कोमल सर पर निर्ममता से छेद कर उसके मस्तिष्क के द्रव को बहार निकाल दिया जाता है , तीब्र वेदना से अपना बचाव करने के लिए भ्रूण का मूंह वेदना में खुल जाता है जिसे मूक चीख [ silent scream ] भी कहा जाता है। शीघ्र ही उसके शरीर की कोमल त्वचा उतर जाती है, गर्भ से जुड़े रहने का प्रमुख आधार प्लेसेंटा, amniotic fluid एवं भ्रूण के बचे हुए शेष भाग कलेक्शन ट्यूब में आकर जमा हो जाते है।
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यह पूरी प्रक्रिया अमानवीय है। जिस डॉक्टर ने सर्वप्रथम अल्ट्रासाउंड विडियो टेप देखा था उसने भविष्य में कभी गर्भपात नहीं करने का फैसला किया था।
दुसरे प्रकार D N C [ Dilation and Curettage Abortion ] प्रक्रिया भी लूप आकर की स्टील की तेज धार वाली नाइफ़ से भ्रूण के टुकड़े-टुकड़े कर प्लेसेंटा और क्षत-विक्षत भ्रूण को निकाल कर गर्भाश्य की दीवारों को खरोंच कर साफ़ किया जाता है।
गर्भावस्था के पहले और दूसरे ट्राइमेस्टार में डॉक्टर्स एबॉर्शन के लिए मेडीकल एबॉर्शन की सलाह देते हैं। जिसमें दवाओं के प्रयोग से एबॉर्शन किया जाता हैं। इसे कैमिकल एबॉर्शन के नाम से भी जाना जाता है। इस में मुख्यता proglastin नामक ड्रग समूह की दवाइयों का प्रयोग किया जाता है । इनके प्रयोग से गर्भाश्य में तीव्र संकुचन होता है जिसके चलते गर्भाश्य की आन्तरिक दीवार की लाइनिंग और उसपर निषेचित भ्रूण और अन्य टिश्यू योनि मार्ग से बाहर आ जाते हैं । कभी कभी इस प्रक्रिया में बाहर आने वाले भ्रूण जीवित अवस्था में भी होते हैं ।
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1996 में अमेरिका कांग्रेस द्वारा बहस में गर्भपात के पक्ष में दलील देने वालों ने कहा था की गर्भ-पात में प्रयुक्त एनेस्थेसिया के चलते भ्रूण गर्भपात से पहले ही दम-तोड़ देता है।
लेकिन U .S. Society for Obstetric Anesthesia and Perinatology [SOAP] के उच्च अधिकारीयों के अनुसार जिस एनेस्थीसिया से माँ के शरीर पर कोई नकारत्मक प्रभाव नहीं पड़ता है उससे भ्रूण को क्या नुकसान हो सकता है ?
ब्रिटिश मेडिकल जेर्नल लांसेंट ने भ्रूण द्वारा अनुभव की गई पीड़ा का ठोस प्रमाण दिया है।
चिकित्सा- विज्ञान में किसी भी व्यक्ति का जीवित रहना का प्रमाण हृदय की धडकन एवं मस्तिष्क की तरंगों से मिलता है। ह्रदय गति बंद हो जाने के पश्चात भी लाइफ-सपोर्ट-सिस्टम पर रख दिया जाता है , जब तक उसकी मस्तिष्क की क्रियाशीलता शून्य नहीं हो जाती है तब तक उसे मृत घोषित नहीं किया जात है।
गर्भधान के मात्र 18-25 दिनों में भ्रूण का ह्रदय धड़कने लग जात है, और वह एक जीवित इकाई बन जात है।फिर 40- 45 दिनों में उसके मस्तिष्क की तरंगों को मापा जा सकता है। अतः भ्रूण एक जीवित मानव के सामान है। उसको भी जीवित रहने का पूर्ण अधिकार है।
कानून की तरफ से गर्भपात इन कारणों के चलते कराया जा सकता है-
हिन्दू ग्रंथों में गर्भस्थ भ्रूण को ब्रह्मस्वरूप माना गया है । कहा जाता है की गर्भ में भ्रूण को अपने पिछले सौ जन्मों की स्मृति रहती है । इसलिए भूण हत्या को एक जघन्य अपराध माना गया है । नैतिक, आध्यत्मिक और धार्मिक व्याख्याओं ने अक्सर भ्रूण को लेकर नैतिक जिम्मेदारी का एक जवाबी तर्क उत्पादित किया है।
इस दिशा में महिला- आयोग, मानवाधिकार -आयोग इत्यादि संगठनों को कमर -कस का सामने आना होगा। सरकार द्वारा नियंत्रण प्रणाली में सुधार लाना होगा। कृत्रिम उपायों और प्राकृतिक नियंत्रण -प्रणालियों अपना कर और लोगों को अधिक से अधिक जागरूक एवं सम्वेदनशील बना कर इस अमानवीय कृत के प्रति सजग बना होगा। लोगों के सवाल गर्भपात की प्रकृति के बारे में और वह कितना जानबूझकर किया है, इसपर होता हैं। इसमे माँ के इरादे, उद्देश्य और शर्तें शामिल हैं।
इस संदर्भ में भारत में Society for the protection of unborn children [SPUC] का गठन किया गया है | इसके केंद्र कई राज्यों में स्थापित हैं जो गर्भपात से मरने वाले अजन्में बच्चों की मूक चीख को आवाज़ देने में जुटे हुए है। उच्चतम न्यायलय ने भ्रूण - हत्या के खिलाफ कड़ाई से पालन करने का आदेश दिया है। भारत में लिंग-अनुपात में निरंतर गिरावट आती जा रही है। स्त्रियों की संख्या निरंतर घटती जा रही है, जिसके कारण कई सामाजिक-सांस्कृतिक समस्याएं उठ खड़ी हुई हैं। बेटी बचाओ कैंपेन इसी दिशा में उठाया गया एक सकारात्मक कदम है ।
कम से कम हम सब इतनी तो इंसानियत रखें ही की इन अजन्में बच्चों की मूक चीख को सुन सके और अपने मानव होने का सबूत दे सके ।
द्वारा
गीता झा
मानवाधिकार के तहद हर मानव को जीने का अधिकार है। गर्भ से बाहर आने के बाद भारत में पालन करने के लिए कई कानून हैं , लेकिन गर्भ के अन्दर भ्रूण हत्या के लए कोई कठोर कानून नहीं है। गर्भस्थ शिशु पुकार नहीं सकता अपने बचाव के लिए चिल्ला नहीं सकता इसलिए उसकी हत्या करने पर सम्बंधित लोगों में अपराध की भावना भी जागृत नहीं होती है।
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नेशनल राईट तो लाइफ के अनुसार विश्व में केवल 7 % गर्भ पात ही बलात्कार या चिकित्सा कारणों से होते हैं, जबकि 93 % गर्भ -पात केवल सुविधा , सहूलियत और सामाजिक कारणों के कारण होते हैं।
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अल्ट्रा- साउंड इमेजिंग उपकरण का विकास गर्भस्थ शिशु की रक्षा हेतु जाँच के लिए हुआ था, ताकि यदि गर्भस्थ शिशु का उचित विकास न हुआ हो तो , उसका उपचार गर्भ में ही किया जा सके।परन्तु आज कल अधिकतर इस तकनीक का प्रयोग लिंग -परीक्षण के लिए किया जाता है। ऐसे परिक्षण में अगर अगर पता चलता है की भ्रूण मादा हैं तो उसका अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है।उसे जन्मने से पहले ही मृत्यु के हवाले कर दिया जाता है।
भ्रूण एक स्वतंत्र जीवित इकाई है
गर्भ-पात के समर्थक कहते हैं की भ्रूण अपनी माँ के लाइफ सपोर्ट सिस्टम के ऊपर पूर्ण रूप से आश्रित रहता हैं, माँ के गर्भ के बाहर उसका जीवन संभव नहीं है अतः गर्भ के अन्दर उसको एक पूर्ण-जीवित-इकाई मानना उचित नहीं है।
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उनकी यह दलील उचित नहीं है क्योकि कोमा में जाने वाले व्यक्ति एवं मधुमय, किडनी-फेलियर या अन्य बिमारियों से ग्रसित लोग भी काफी लम्बे समय तक जीवन-समर्थित -सिस्टम पर जिन्दा रहते हैं, तो क्या उनके जीने का अधिकार समाप्त हो जाता है? या उन्हें एक पूर्ण-जीवित-इकाई नहीं माना जाता है?
क्या गर्भ- पात से गर्भस्थ शिशु को पीड़ा होती है ?
गर्भ-पात के हिमायतियों का कहना है प्रारंभिक अवस्था में भ्रूण के मस्तिष्क का सेरिब्रल-कोर्टेक्स विकसित नहीं होता ही, अतः उन्हें गर्भ-पात से उत्पन्न हुई शरीरिक पीड़ा का अनुभव नहीं होता है।
विज्ञान ने अनेक परिक्षण-अन्वेषण-अनुसन्धान कर यह सिद्ध किया है की शरीरिक पीड़ा अनुभव करने के लिए मस्तिष्क के थाल्मस का होना ही प्रयाप्त है, जो भ्रूण के 8 वे हफ्ते में पूर्ण विकसित हो जाता है।
गर्भवस्था के 6 वे हफ्ते में भ्रूण के मस्तिष्क की तरंगों को मापा जा सकता है।प्रत्येक शरीर के अंग बनाने शुरू हो जाते हैं, तथा ऊँगली के छाप तैयार हो जाते हैं।
6-8 हफ्ते में भ्रूण की नाड़ी -संस्थान संरचना उपस्थित होती है। किसी भी शरीरिक प्रतिक्रिया को अनुभव करने के लिए मुख्यत तीन अवयवों की आवश्कता पड़ती है :
1. संवेदन नाड़ी तंत्र [sympathetic nervous system] जो दर्द का अनुभव करती है और उसे सन्देश के रूप में मस्तिष्क को भेजती है।
2.मस्तिष्क के आधार में स्थित थाल्मस जो सन्देश को ग्रहण करता है।
3. मोटर नाडी जो सम्बंधित अंग को सन्देश भेजती है।
ये तीनों अवयव 8 हफ्ते के भ्रूण में उपस्थित रहते हैं। वैज्ञानिकों ने देखा की 8 हफ्ते के भ्रूण के पैरों के तलवों में अगर कोई नुकीली या पैनी वस्तु चुभो दी जाये तो वह न केवल अपना पैर खीच लेता है वरन उसके चहरे पर पीड़ा की अनुभूति के भाव की साफ झलक होती है। इतना ही नहीं उसकी ह्रदय-गति में परिवर्तन आ जाता है और वह गर्भ में अपनी स्तिथि को बदल लेता है ।
अल्ट्रा -साउंड के माध्यम से भ्रूण का E C G एवं E E G का परिक्षण क्या गया तो पाया गया की बाहरी प्रतिक्रिया के प्रति भ्रूण की प्रतिक्रिया संवेदना से भरी होती है।
भ्रूण-शास्त्र के जन्मदाता सर विलियम लिल्ली के अनुसार गर्भस्थ भ्रूण न केवल स्पर्श,पीड़ा,ध्वनि के प्रति सम्वेदनशील होता हैं वरन गर्भ में प्रकाश की इंटेंसिटी घटने-बड़ने और amniotic fluid के तापमान और स्वाद में परिवर्तन के प्रति भी प्रतिक्रिया करता है।
गर्भपात की अमानवीय प्रक्रियाएं
12 हफ्ते के भ्रूण के अल्ट्रासाउंड विडियो के साफ दिखाई देता है की गर्भ-पात में प्रयोग में ली जाने वाली सेक्शन-डिवाइस [Vacuum Aspiration Abortion ] से बचने के लिए भ्रूण पूरी कोशिश करता है। इसके फलस्वरूप उसकी ह्रदय-गति दो गुनी हो जाती है। सक्शन डिवाइस में तेज धार वाले कट्टर लगे होते हैं जिसे भ्रूण के कोमल सर पर निर्ममता से छेद कर उसके मस्तिष्क के द्रव को बहार निकाल दिया जाता है , तीब्र वेदना से अपना बचाव करने के लिए भ्रूण का मूंह वेदना में खुल जाता है जिसे मूक चीख [ silent scream ] भी कहा जाता है। शीघ्र ही उसके शरीर की कोमल त्वचा उतर जाती है, गर्भ से जुड़े रहने का प्रमुख आधार प्लेसेंटा, amniotic fluid एवं भ्रूण के बचे हुए शेष भाग कलेक्शन ट्यूब में आकर जमा हो जाते है।
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यह पूरी प्रक्रिया अमानवीय है। जिस डॉक्टर ने सर्वप्रथम अल्ट्रासाउंड विडियो टेप देखा था उसने भविष्य में कभी गर्भपात नहीं करने का फैसला किया था।
दुसरे प्रकार D N C [ Dilation and Curettage Abortion ] प्रक्रिया भी लूप आकर की स्टील की तेज धार वाली नाइफ़ से भ्रूण के टुकड़े-टुकड़े कर प्लेसेंटा और क्षत-विक्षत भ्रूण को निकाल कर गर्भाश्य की दीवारों को खरोंच कर साफ़ किया जाता है।
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गर्भावस्था के पहले और दूसरे ट्राइमेस्टार में डॉक्टर्स एबॉर्शन के लिए मेडीकल एबॉर्शन की सलाह देते हैं। जिसमें दवाओं के प्रयोग से एबॉर्शन किया जाता हैं। इसे कैमिकल एबॉर्शन के नाम से भी जाना जाता है। इस में मुख्यता proglastin नामक ड्रग समूह की दवाइयों का प्रयोग किया जाता है । इनके प्रयोग से गर्भाश्य में तीव्र संकुचन होता है जिसके चलते गर्भाश्य की आन्तरिक दीवार की लाइनिंग और उसपर निषेचित भ्रूण और अन्य टिश्यू योनि मार्ग से बाहर आ जाते हैं । कभी कभी इस प्रक्रिया में बाहर आने वाले भ्रूण जीवित अवस्था में भी होते हैं ।
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1996 में अमेरिका कांग्रेस द्वारा बहस में गर्भपात के पक्ष में दलील देने वालों ने कहा था की गर्भ-पात में प्रयुक्त एनेस्थेसिया के चलते भ्रूण गर्भपात से पहले ही दम-तोड़ देता है।
लेकिन U .S. Society for Obstetric Anesthesia and Perinatology [SOAP] के उच्च अधिकारीयों के अनुसार जिस एनेस्थीसिया से माँ के शरीर पर कोई नकारत्मक प्रभाव नहीं पड़ता है उससे भ्रूण को क्या नुकसान हो सकता है ?
ब्रिटिश मेडिकल जेर्नल लांसेंट ने भ्रूण द्वारा अनुभव की गई पीड़ा का ठोस प्रमाण दिया है।
चिकित्सा- विज्ञान में किसी भी व्यक्ति का जीवित रहना का प्रमाण हृदय की धडकन एवं मस्तिष्क की तरंगों से मिलता है। ह्रदय गति बंद हो जाने के पश्चात भी लाइफ-सपोर्ट-सिस्टम पर रख दिया जाता है , जब तक उसकी मस्तिष्क की क्रियाशीलता शून्य नहीं हो जाती है तब तक उसे मृत घोषित नहीं किया जात है।
गर्भधान के मात्र 18-25 दिनों में भ्रूण का ह्रदय धड़कने लग जात है, और वह एक जीवित इकाई बन जात है।फिर 40- 45 दिनों में उसके मस्तिष्क की तरंगों को मापा जा सकता है। अतः भ्रूण एक जीवित मानव के सामान है। उसको भी जीवित रहने का पूर्ण अधिकार है।
कानून की तरफ से गर्भपात इन कारणों के चलते कराया जा सकता है-
- जब गर्भ के कारण जीवन खतरे में हो।
- जब पैदा होने वाले शिशु को मानसिक बीमारी होने की आशंका हो।
- गर्भ बलात्कार के बाद ठहर गया हो |
- गर्भ परिवार नियोजन में विफल होने का कारण हो।
- सामाजिक-आर्थिक स्थिति या वैसी स्थिति, जिससे मां के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़े।
- जब मां किसी शारीरिक या मानसिक बीमारी से ग्रस्त हो या गर्भ के कारण उसके जीवन को खतरा हो या गर्भ उसके शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो।
हिन्दू ग्रंथों में गर्भस्थ भ्रूण को ब्रह्मस्वरूप माना गया है । कहा जाता है की गर्भ में भ्रूण को अपने पिछले सौ जन्मों की स्मृति रहती है । इसलिए भूण हत्या को एक जघन्य अपराध माना गया है । नैतिक, आध्यत्मिक और धार्मिक व्याख्याओं ने अक्सर भ्रूण को लेकर नैतिक जिम्मेदारी का एक जवाबी तर्क उत्पादित किया है।
इस दिशा में महिला- आयोग, मानवाधिकार -आयोग इत्यादि संगठनों को कमर -कस का सामने आना होगा। सरकार द्वारा नियंत्रण प्रणाली में सुधार लाना होगा। कृत्रिम उपायों और प्राकृतिक नियंत्रण -प्रणालियों अपना कर और लोगों को अधिक से अधिक जागरूक एवं सम्वेदनशील बना कर इस अमानवीय कृत के प्रति सजग बना होगा। लोगों के सवाल गर्भपात की प्रकृति के बारे में और वह कितना जानबूझकर किया है, इसपर होता हैं। इसमे माँ के इरादे, उद्देश्य और शर्तें शामिल हैं।
इस संदर्भ में भारत में Society for the protection of unborn children [SPUC] का गठन किया गया है | इसके केंद्र कई राज्यों में स्थापित हैं जो गर्भपात से मरने वाले अजन्में बच्चों की मूक चीख को आवाज़ देने में जुटे हुए है। उच्चतम न्यायलय ने भ्रूण - हत्या के खिलाफ कड़ाई से पालन करने का आदेश दिया है। भारत में लिंग-अनुपात में निरंतर गिरावट आती जा रही है। स्त्रियों की संख्या निरंतर घटती जा रही है, जिसके कारण कई सामाजिक-सांस्कृतिक समस्याएं उठ खड़ी हुई हैं। बेटी बचाओ कैंपेन इसी दिशा में उठाया गया एक सकारात्मक कदम है ।
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कम से कम हम सब इतनी तो इंसानियत रखें ही की इन अजन्में बच्चों की मूक चीख को सुन सके और अपने मानव होने का सबूत दे सके ।
द्वारा
गीता झा
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