श्रीरामचरितमानस के कथा -प्रसंगों पर अक्सर लोगों को नाना प्रकार प्रकार की शंकाएं होती ही रहती हैं । रामचरितमानस एक दर्पण है जिसमें देखने वाले को अपनी ही छवि दिखाई देती है ।एक विचारवान इंसान को ग्रन्थ में वर्णित किसी भी प्रसंग की टीका-टिप्पणी करने से पहले उसके ग्रंथकार के उद्देश्य , उस निश्चित घटना क्रम के काल,पात्र ,स्थान, प्रसंग और अभिप्राय को अनिवार्य रूप से ध्यान में रखना चाहिए । अन्यथा उस प्रसंग के विषय में जो भी शंका होगी वह पाठक के निजी विचारों या भावों को ही व्यक्त करने वाली होगी । पूर्वाग्रहों से युक्त ऐसी अनर्गल शंकाएं किसी भी महान ग्रन्थ की मूल भावना को नष्ट कर सकती हैं ।
सुन्दरकाण्ड में एक ऐसा ही प्रसंग है जिसमें हनुमान जी विभीषण को कहते हैं …"प्रात नाम जो लेई हमारा ता दिन ताहि न मिलै अहारा"
कई पाठक गण अपने निज के भाव और पूर्वग्रहों से युक्त हो कर कहते हैं की इस प्रसंग में हनुमान जी ने स्वयं कहा है की प्रातःकाल उनका नाम लेने से उस जातक को दिन भर भोजन नहीं मिलता है ।
धर्म ग्रंथों के अनुसार हनुमान जी एकमात्र ऐसे देवता हैं जो सशरीर इस पृथ्वी पर विचरण करते हैं और अपने भक्तों की हर मनोकामना पूरी करते हैं। हनुमान जी को संकट मोचन कहा गया है। हनुमान जी का नाम स्मरण करने मात्र से ही भक्तो के सारे संकट दूर हो जाते हैं।अब शंका यह होती है की स्वयं हनुमान जी ने अपने मुख से यह क्यों कहा की जो जातक प्रातःकाल उनका नाम लेता है उसे दिन भर भोजन नहीं मिलता है । तब प्रातःकाल हनुमान चालीसा या सुन्दरकाण्ड का पाठ करना या हनुमान जी की पूजा करना निषिद्ध होना चाहये ?
आइये अब थोड़ा सत्य जाने । यह प्रसंग सुन्दरकाण्ड का है जब लंका में प्रवेश करते ही विभीषण हनुमान संवाद होता है । सुंदरकांड श्रीरामचरितमानस का चौथा अध्याय है। यह श्रीरामचरितमानस का सबसे अधिक पढ़ा जाने वाला भाग है क्योंकि इसमें हनुमान जी के बल, बुद्धि, पराक्रम व शौर्य का वर्णन किया गया है। सुंदरकांड के पढऩे व सुनने से मन में एक अद्भुत ऊर्जा का संचार होता है। सुंदरकांड के हर दोहा, चौपाई व शब्द में गहन अध्यात्म छुपा है, जिससे मनुष्य जीवन की हर समस्या का सामना कर सकता है।
लंका प्रवेश में हनुमान एक अलग ढंग का घर देखते हैं जहाँ विभीषण का वास है -वे आश्चर्यचकित होते हैं कि राक्षसों के बीच यहाँ कौन से सज्जन का निवास हो सकता है
हनुमान्-विभीषण संवाद
दोहा :
* रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।
नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराई॥5॥
भावार्थ:-वह महल श्री रामजी के आयुध (धनुष-बाण) के चिह्नों से अंकित था, उसकी शोभा वर्णन नहीं की जा सकती। वहाँ नवीन-नवीन तुलसी के वृक्ष-समूहों को देखकर कपिराज श्री हनुमान्जी हर्षित हुए॥5॥
चौपाई :
* लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥
मन महुँ तरक करैं कपि लागा। तेहीं समय बिभीषनु जागा॥1॥
भावार्थ:-लंका तो राक्षसों के समूह का निवास स्थान है। यहाँ सज्जन (साधु पुरुष) का निवास कहाँ? हनुमान्जी मन में इस प्रकार तर्क करने लगे। उसी समय विभीषणजी जागे॥1॥
* राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा॥
एहि सन सठि करिहउँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी॥2॥
भावार्थ:-उन्होंने (विभीषण ने) राम नाम का स्मरण (उच्चारण) किया। हनमान्जी ने उन्हें सज्जन जाना और हृदय में हर्षित हुए। (हनुमान्जी ने विचार किया कि) इनसे हठ करके (अपनी ओर से ही) परिचय करूँगा, क्योंकि साधु से कार्य की हानि नहीं होती। (प्रत्युत लाभ ही होता है)॥2॥
* बिप्र रूप धरि बचन सुनाए। सुनत बिभीषन उठि तहँ आए॥
करि प्रनाम पूँछी कुसलाई। बिप्र कहहु निज कथा बुझाई॥3॥
भावार्थ:-ब्राह्मण का रूप धरकर हनुमान्जी ने उन्हें वचन सुनाए (पुकारा)। सुनते ही विभीषणजी उठकर वहाँ आए। प्रणाम करके कुशल पूछी (और कहा कि) हे ब्राह्मणदेव! अपनी कथा समझाकर कहिए॥3॥
* की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई। मोरें हृदय प्रीति अति होई॥
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी। आयहु मोहि करन बड़भागी॥4॥
भावार्थ:-क्या आप हरिभक्तों में से कोई हैं? क्योंकि आपको देखकर मेरे हृदय में अत्यंत प्रेम उमड़ रहा है। अथवा क्या आप दीनों से प्रेम करने वाले स्वयं श्री रामजी ही हैं जो मुझे बड़भागी बनाने (घर-बैठे दर्शन देकर कृतार्थ करने) आए हैं?॥4॥
दोहा :
* तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम॥6॥
भावार्थ:-तब हनुमान्जी ने श्री रामचंद्रजी की सारी कथा कहकर अपना नाम बताया। सुनते ही दोनों के शरीर पुलकित हो गए और श्री रामजी के गुण समूहों का स्मरण करके दोनों के मन (प्रेम और आनंद में) मग्न हो गए॥6॥
चौपाई :
* सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी॥
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥1॥
भावार्थ:-(विभीषणजी ने कहा-) हे पवनपुत्र! मेरी रहनी सुनो। मैं यहाँ वैसे ही रहता हूँ जैसे दाँतों के बीच में बेचारी जीभ। हे तात! मुझे अनाथ जानकर सूर्यकुल के नाथ श्री रामचंद्रजी क्या कभी मुझ पर कृपा करेंगे?॥1॥
*तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीत न पद सरोज मन माहीं॥
अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता॥2॥
भावार्थ:-मेरा तामसी (राक्षस) शरीर होने से साधन तो कुछ बनता नहीं और न मन में श्री रामचंद्रजी के चरणकमलों में प्रेम ही है, परंतु हे हनुमान्! अब मुझे विश्वास हो गया कि श्री रामजी की मुझ पर कृपा है, क्योंकि हरि की कृपा के बिना संत नहीं मिलते॥2॥
* जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा। तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा॥
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीति॥3॥
भावार्थ:-जब श्री रघुवीर ने कृपा की है, तभी तो आपने मुझे हठ करके (अपनी ओर से) दर्शन दिए हैं। (हनुमान्जी ने कहा-) हे विभीषणजी! सुनिए, प्रभु की यही रीति है कि वे सेवक पर सदा ही प्रेम किया करते हैं॥3॥
* कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना॥
प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा॥4॥
भावार्थ:-भला कहिए, मैं ही कौन बड़ा कुलीन हूँ? (जाति का) चंचल वानर हूँ और सब प्रकार से नीच हूँ, प्रातःकाल जो हम लोगों (बंदरों) का नाम ले ले तो उस दिन उसे भोजन न मिले॥4॥
दोहा :
* अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।
कीन्हीं कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर॥7॥
भावार्थ:-हे सखा! सुनिए, मैं ऐसा अधम हूँ, पर श्री रामचंद्रजी ने तो मुझ पर भी कृपा ही की है। भगवान् के गुणों का स्मरण करके हनुमान्जी के दोनों नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया॥7॥
चौपाई :
* जानतहूँ अस स्वामि बिसारी। फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी॥
एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा। पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा॥1॥
भावार्थ:-जो जानते हुए भी ऐसे स्वामी (श्री रघुनाथजी) को भुलाकर (विषयों के पीछे) भटकते फिरते हैं, वे दुःखी क्यों न हों? इस प्रकार श्री रामजी के गुण समूहों को कहते हुए उन्होंने अनिर्वचनीय (परम) शांति प्राप्त की॥1॥
* पुनि सब कथा बिभीषन कही। जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही॥
तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता। देखी चहउँ जानकी माता॥2॥
भावार्थ:-फिर विभीषणजी ने, श्री जानकीजी जिस प्रकार वहाँ (लंका में) रहती थीं, वह सब कथा कही। तब हनुमान्जी ने कहा- हे भाई सुनो, मैं जानकी माता को देखता चाहता हूँ॥2॥
विभीषण और हनुमान दोनों रामभक्त थे । कुशल क्षेम पूछने के पश्चात जब उनमें संवाद होता है तब विभीषण कहते हैं की … मैं तो जन्म से ही अभागा हूँ ...मेरा तो यह राक्षस का अधम शरीर ही है और मन में भी प्रभु के पद कमल के प्रति प्रीति नहीं उपजती, आज आप जैसे संत ह्रदय से भेंट हुयी है तो यह तो हरि की कृपा ही है । तब हनुमान को यह भान हुआ कि विभीषण में अपने राक्षस रूप को को लेकर हीन भावना है , तो उन्होंने खुद अपना उदाहरण देकर उन्हें वाक् चातुर्य से संतुष्ट किया ........ अब मैं ही कौन सा कुलीन हूँ विभीषण ? और एक वानर के रूप में मैं भी तो सब तरह से,तन मन से हीन ही हूँ ..और लोक श्रुति तो यह भी है कि अगर कोई सुबह हमारा नाम( वानर का नाम) ले ले तो उसे दिन भर आहार नहीं मिलेगा!
यहाँ हनुमान की प्रत्युत्पन्न बुद्धि और वाक् चातुर्य स्पष्ट दीखती है ....विभीषण को हीन भावना से उबारने के लिए उन्होंने खुद अपने वानर रूप का उदाहरण दिया और प्रकारांतर से यह कह गए कि अगर प्रभु राम की कृपा हो जाय तो तन मन योनि से कोई फर्क नहीं पड़ता । प्रभु कृपा से अधम भी पुण्यात्मा बन जाय -मेरा ही देखिये जो कुछ भी मैं हूँ वह प्रभु कृपा से ही हूँ नहीं तो एक वानर की क्या औकात थी? "अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर" ...
अतः प्रातः काल परम रामभक्त हनुमान जी स्मरण करना निषिद्ध नहीं है । हनुमान जी साक्षात् रुद्रावतार होने के नाते श्रीरामोपासना के परमाचार्य है। इनकी कृपा बिना श्रीराम की उपासना में किसी को अन्तरंगता प्राप्त नहीं हो सकती। राम-भक्ति के तो यो भण्डारी एवं संरक्षक ठहरे।
गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज के कथनानुसार इनकी सेवा में कोई विशेष प्रयास करना नहीं पड़ता। ये गुणगान करने नमस्कार करने, स्मरण करने तथा नाम जपने मात्र से प्रसन्न होकर सेवकों का अभीष्ट हितसाधक सम्पन्न करने को सदैव तत्पर रहते हैं।
‘जिनके, हृदय में इनकी विकराल मूर्ति निवास कर लेती है, स्वप्न में भी उसकी छाया के पास भी संताप-पाप निकट नहीं आ सकते।’
अतः प्रातः काल क्या किसी भी प्रहर एक क्षण भी श्री हनुमान के नाम -भजन से विमुख नहीं होना चाहिए ।कालातीत अमर हनुमान जी सदा सब काल में वन्दनीय हैं ।
गीता झा
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