कार्यसिद्धि के लिए अपने उपास्य देव से प्रार्थना करना, अनुनय -विनय करना तो उचित है लेकिन उनपर दबाव डालना, शपथ या दोहाई देकर कार्य करवाने के लिए विवश करना, उन्हें दुविधा डालना सर्वथा अनुचित है । बजरंगबाण में कार्यसिद्धि एवं दुखनिवारण हेतु हनुमान जी पर उन्हीं के ह्रदय में विराजमान रहने वाले श्रीराम के नाम का आश्रय लेकर अनुचित दबाव डाला जाता है जैसे
1. इन्हें मारु, तोहि सपथ राम की। राखु नाथ मरजाद नाम की॥
2. सत्य होहु हरि सपथ पाइ कै। राम दूत धरु मारु धाइ कै॥
3. जनकसुता हरि दास कहावौ। ताकी सपथ बिलंब न लावौ॥
4. उठु, उठु, चलु, तोहि राम दुहाई। पायँ परौं, कर जोरि मनाई॥
श्री हनुमान जी जैसा कोई भक्त नहीं। जब तक पृथ्वी पर श्रीराम की कथा रहेगी, तब तक पृथ्वी पर रहने का वरदान उनने स्वयं प्रभु से माँगा है। कहते हैं कि हनुमान ने अपने वज्रनख से पर्वत की शिलाओं पर एक रामचरित काव्य लिखा था। उसे देखकर महर्षि वाल्मीकि को बड़ा दुःख हुआ कि यदि वह काव्य लोक में प्रचलित हो गया तो मेरे आदिकाव्य का समादर न होगा। ऋषि को संतुष्ट करने के लिए हनुमान जी ने वे शिलाएँ समुन्द्र में डाल दीं। सच्चे भक्त में यश, मान, बड़ाई की इच्छा का लेशमात्र भी अंश नहीं होता। वह तो सदैव अपने प्रभु का पावन यश ही लोक में गाता है।
ईश्वर का प्रेम और अनुदान उसकी हर संतान के लिए प्रचुर परिमाणों में विद्यमान है । परन्तु उसकी उपलब्धि पात्रता के अनुसार ही होती ही । दैवी अनुग्रह और अनुदान प्राप्त करने के लिए यह प्रमाणित करना पड़ता है की प्रार्थी ने उसके लिए उपयुक्त प्रमाणिकता अर्जित कर ली । इतना करने के उपरांत योग्यता का मूल्य प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं रह जाती है ।
किन्तु इससे बचकर यदि किसी दिव्य शक्ति को दुहाई देकर,छुटपुट उपहारों से मनुहार करके , किसी का वास्ता देकर अपना उल्लू सीधा करने का प्रयास करना बचकाना और अमर्यादित है ।
इस सम्पूर्ण जगत का कण-कण नियम मर्यादा में बंधा हुआ है , दिव्य शक्तियां और ईश्वर भी । जैसे किसी बैंक में काफी धनराशि है, लेकिन किसी का उतना ही बड़ा चेक स्वीकार किया जाता है , जितनी उसकी अमानत जमा हो । इन नियमों की अवेहलना कर बैंक मैनेजर को वास्ता देकर, दुहाई देकर और किसी का डर दिखा कर क्या मनचाही राशि प्राप्त की जा सकती ही ?
दिव्य शक्तियों से बहुत कुछ पाया जा सकता है लेकिन एक नियत मर्यादाओं के अनुरूप है ।दिव्य शक्तियां हमारे साथ पक्षपात नहीं करती हैं । परमात्मा का हमें , सत्कर्म न करते हुए भी सफलताएं देना या दुष्कर्मों के करते हुए भी दंड से बचे रहने की व्यवस्था करना ऐसा सोचना भी नितांत भूल है ।
भगवान भाव देखते हैं , यदि हमारी भाव और क्रिया शुद्ध है तो हम स्वतः पापों से डरेंगे और पुण्य से प्रेम करेंगें । यही प्रेम हमारी प्रार्थना में भी आस्था के रूप में प्रगट होता है । प्रभु प्रेम से मिलते हैं , दबाव और अनुचित कथन से नही ।
बजरंगबली महावीर हनुमानजी सहज सरल और भोले हैं। इनके भोलेपन एवं श्रीरधुनाथ जी के चरण–कमलों में इनकी अदभुत प्रीति की अनेक कथाएं भक्तों में प्रचलित हैं। वे कथाएं हनुमानजी की सरलता, उनके भोलेपन एवं उनकी अलौकिक श्रीरामप्रीति को परिचायिका है।
भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त हनुमान जी की श्रीराम के चरणों में भी अद्भुत भक्ति है और श्रीराम उन्हें प्राण–तुल्य प्रेम भी करते हैं ।
श्रीराम के अनन्य भक्त हनुमानजी की कृपा प्राप्त होते ही भक्तों के सभी दुख दूर हो जाते हैं। हनुमानजी शीघ्र प्रसन्न होने वाले दिव्य शक्तियों में से एक हैं।
गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरित मानस के अनुसार माता सीता द्वारा पवनपुत्र हनुमानजी को अमरता का वरदान दिया गया है। इसी वरदान के प्रभाव से इन्हें भी अष्टचिरंजीवी में शामिल किया गया है।
श्री हनुमानजी का यह उपदेश सदैव स्मरण में रखने योग्य हैः
'स्मरण रहे, लौकिक क्षुद्र कामना की पूर्ति के लिए सर्वदा मोक्षसाधक, परम कल्याणप्रदायक श्रीराम-मंत्र का आश्रय भूलकर भी नहीं लेना चाहिए। श्रीरामकृपा से मेरे द्वारा ही अभिवांछित फल की प्राप्ति हो जायेगी। कोई भी सांसारिक काम अटक जाय तो मुझ श्रीराम-सेवक का स्मरण करना चाहिए।' (रामरहस्योपनिषदः 4.11)
हनुमान जी यह नहीं चाहते कि उनके रहते हुए उनके स्वामी को भक्तों का दुःख देखना पड़े। यदि कोई उनकी उपेक्षा कर श्रीरामचन्द्रजी को क्षुद्र कामना के लिए पुकारता है तो उन्हें बड़ी वेदना होती है।
स्वयं प्रभु श्रीराम जिनके ऋणि बन गये, जिनके प्रेम के वशीभूत हो गये और सीताजी भी जिनसे उऋण न हो सकीं, उन अंजनिपुत्र हनुमानजी की रामभक्ति का वर्णन नहीं किया जा सकता। क्या ऐसे आलोकिक और सर्वकामनापूर्ति करने वाले श्रीहनुमान को उन्हीं के ईष्ट की दुहाई देकर वांछित फलों की प्राप्ति की लालसा करना मूर्खता नहीं है ।खुद सोचे यह भक्ति है की ब्लैकमेलिंग?
अतः बजरंगबाण का पाठ करते समय हमें यह सारी बातें ध्यान में रखनी चाहये |
गीता झा
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