अधिकांश लोग अपने उपयोग की और मनपसंद वस्तुओं के निर्माण में जीवों पर होने वाले अत्यचार की बात की तरफ ज्यादा ध्यान नहीं देते हैं । जीवों पर अत्याचार का यह मतलब नहीं है की उन वस्तुओं का प्रयोग छोड़ दिया जाए वरन उनके स्थान पर दूसरी वस्तुओं का सूझबूझ से चयन किया जाये । अधिकतर संवेदनशील व्यक्ति उन्हीं वस्तुओं को पसंद करेंगें जिसके लिए जीव हत्या नही की गई हो ।
बहुत से लोग से लोग चमड़े के वस्त्र या जाकेट नहीं पहनते हैं क्योंकि वे जीवों की खाल उतार कर बनाये जाते हैं , लेकिन वही लोग धर्मिक कर्मकांड, पूजा-पाठ या अन्य शादी उत्सवों में रेशम के वस्त्रों को धड़ल्ले से पहनते हैं । यह बात कम ही लोगों को मालूम होती है की रेशमी वस्त्र उन्ही धागों से बना होता है जिन्हें रेशम के कीड़े पतंगे बनने से पहले आपनी रक्षा के लिए अपने चारों ओर आवरण या सुरक्षा -कवच के रूप में काम में लाते हैं । इनके पतंगे बनाने से पहले ही इन कोकून या कोया को जीवित उबाला जाता है ।
इस प्रकार रेशम के 1 5 कोकून उबाल कर 1 ग्राम रेशम पाया जाता है । या यह भी कह सकते हैं की 1 ग्राम रेशम के लिए लगभग 1 5 पतंगों की जान ली जाती है । इसी श्रृंखला में 1 0 0 ग्राम रेशम के लिए तक़रीबन डेढ़ हज़ार जीवों की हत्या उनके शैशव काल में ही कर दी जाती है ।
रेशम की एक साडी को तैयार करने में करीब पचास हज़ार ऐसे ही कोकून की जरुरत होती है । यानि एक साडी के लिए पूरे पचास हज़ार जीवों की हत्या की जाती है ।
रेशमी वस्त्र अपने चमक, कोमलता, रंग, शान और नफ़िसियत के लिए प्रसिद्द है । इन्हें धारण करना शानों शौकत की बात मानी जाती है । लेकिन हमें उसे बनाने के तरीकों को भी ध्यान में रखना चाहिए ।
रेशम के कीड़े का जीवन - वृत्त
रेशम उत्पादन केंद्र में पूर्ण विकसित नर और मादा पतंगों के मिलन की प्रक्रिया के बाद नर पतंगों को पकड़ कर बास्केट में डाल कर रेशम उत्पादन केन्द्रों के बाहर फैक दिया जाता है , जिसका उपयोग बाद में पशुओं को खिलाने के लिए किया जाता है ।
चार पाँच दिन के बाद अण्डों से निकले सूक्ष्म लार्वा या इल्ली शहतूत के पत्तों पर पलते हैं और उन्हीं पत्तों से अपना पोषण ग्रहण करते हैं । करीब एक महीने के बाद ये इल्लियाँ ..... केटरपिलर का रूप ले लेती हैं । ये कैटरपिलर अपने विकास के क्रम में पतंगा बनाने से पहले अपने मुंह से निकली लार के आवरण में अपने आप को लपेट लेते हैं । यह आवरण उनकी अन्य जीव- भक्षकों से रक्षा करता है लेकिन दुर्भाग्य से यही रक्षा कवच रेशम बनाने में उनकी हत्या का कारण बन जाता है ।
सामान्यता अपने रक्षा कवच को काट कर पतंगा बाहर निकलता है , बस इसी दौरान उसकी निर्ममता से हत्या कर दी जाती है । जब कोकून पूरी तरह से तैयार हो जाता है और उसके अन्दर का लार्वा अपने विकास के अंतिम चरण में होता है , रेशम निकालने की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है ।
लार्वा के पूर्ण विकसित होने के छह सात दिन पहले ही उसे 7 0 से 9 0 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान के गर्म पानी में तीन चार घंटे के लिए डाल दिया जाता है ।
नन्हा लार्वा घबराता है सुकड़ता है और गर्मी की तपन से अपनी रक्षा के लिए बनाये गए अपने ही कोया में ही दम तोड़ देता है । इस यातना मय प्रक्रिया से एक जीव का रक्षा कवच कफ़न में बदल जाता है । इसके पश्चात उनमें से रेशम का धागा निकाला जाता है ।
यह निर्ममता यहीं समाप्त नही हो जाती है । रेशम केन्द्रों में विकसित की गई आधी इल्लियों को उबाल कर रेशम प्राप्त किया जाता है और बाँकी कि बची आधी को पूर्ण पतंगा होने तक विकसित किया किया जाता है ताकि उनसे आगे अंडे प्राप्त किये जा सके ।
अच्छी क्वालिटी का रेशम, प्राप्त करने के लिए इन पतंगों के पर काट दिए जाते हैं । नर और मादा के मिलन के बाद ही ऐसा किया जाता है । अंडे देने के बाद उन्हें मार दिया जाता है क्योंकि वे अपने जीवन काल में एक बार ही अंडे दें सकती हैं । रोगग्रस्त पतंगों की निर्ममता से पूंछ को काट कर माइक्रोस्कोप से उसकी जाँच की जाती |
इन मरे हुए पतंगों का उपयोग रेशम का तेल, पाउडर , शैम्पू ,साबुन और अन्य कॉस्मेटिक प्रोडक्ट्स में किया जाता है ताकि त्वचा और बालों को नम , सुन्दर और मुलायम बनाया जा सके ।
पर्यावरण असंतुलन
रेशम प्राप्ति का सवाल केवल नृशंस अत्याचार का नही है वरण पर्यवरण संतुलन पर भी इसका अत्यंत प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । रेशम के पतंगें अनेक प्रकार के पौधों के परागण में काम आते हैं । आर्किड प्रजाति के लिए ये पतंगें बहुत महत्वपूर्ण हैं । ये पतंगे पौधों पर लगाने वाले आफिड नामक कीटों और फफूंद को नष्ट करते हैं । इसके साथ ये कीड़े खुद छिपकली, मकड़ी चमगादड़ इत्यदि का भोजन बनते हैं । रेशम के धागों के चक्कर में यह पूरा प्राकृतिक चक्र गड़बड़ा जाता है । अनेक जीवों का जीवन चक्र प्रभावित होता है । यह सब बातें पृथ्वी के पर्यावरण के संतुलन को बिगडती हैं ।
रेशम के अन्य विकल्प
गुजरात , महाराष्ट्र [पूना ] , असम में काफी सारे लोग कैस्टर के खेती करते हैं । कैस्टर के पौधों पर पालने वाले रेशम के कीड़ों को रेशम निकालने के लिए मारा नहीं जाता है । इसमें उन्हीं कोकून का इस्तमाल किया जात हैं जिनके लार्वा विकसित होकर उड़ गए होते हैं । यह प्रक्रिया श्रम साध्य है और इसमें अधिक मात्रा में कोयों की जरुरत पड़ती है , इसलिए अहिंसक रेशम [एनी सिल्क] अन्य रेशम के मुकाबले महंगा होता है ।
Salmalia Malabarica और Bombax Heptaphyllum पौधों की दो ऐसी प्रजातियाँ हैं जिनसे सिल्क - कॉटन प्राप्त किया जा सकता है , जिस प्रकार कपास के पौधों से कपास प्राप्त किया जाता है । plantain tree जैसे पौधों के फाइबर से भी रेशम प्राप्त किया जा सकता है , तमिलनाडु में कुछ समय पहले तक नार-पट्टू इसी फाइबर के रेशम का बनता था जिसका प्रयोग पूजा पाठ के लिए किया जाता था ।
जो जीवन का मूल्य समझते हैं , जो जीवों के प्रति दया का भाव रखते हैं वे रेशम का प्रयोग कम से कम करे और यदि करे भी तो एरी रेशम का प्रयोग करे । फिर चाहे इसकी चमक दमक जीवों की हत्या से बने रेशमी धागों से कम ही क्यों न हो ।
अब मर्जी आपकी .............
यह
या ............ यह
या ............ यह
Geeta Jha
बहुत से लोग से लोग चमड़े के वस्त्र या जाकेट नहीं पहनते हैं क्योंकि वे जीवों की खाल उतार कर बनाये जाते हैं , लेकिन वही लोग धर्मिक कर्मकांड, पूजा-पाठ या अन्य शादी उत्सवों में रेशम के वस्त्रों को धड़ल्ले से पहनते हैं । यह बात कम ही लोगों को मालूम होती है की रेशमी वस्त्र उन्ही धागों से बना होता है जिन्हें रेशम के कीड़े पतंगे बनने से पहले आपनी रक्षा के लिए अपने चारों ओर आवरण या सुरक्षा -कवच के रूप में काम में लाते हैं । इनके पतंगे बनाने से पहले ही इन कोकून या कोया को जीवित उबाला जाता है ।
इस प्रकार रेशम के 1 5 कोकून उबाल कर 1 ग्राम रेशम पाया जाता है । या यह भी कह सकते हैं की 1 ग्राम रेशम के लिए लगभग 1 5 पतंगों की जान ली जाती है । इसी श्रृंखला में 1 0 0 ग्राम रेशम के लिए तक़रीबन डेढ़ हज़ार जीवों की हत्या उनके शैशव काल में ही कर दी जाती है ।
रेशम की एक साडी को तैयार करने में करीब पचास हज़ार ऐसे ही कोकून की जरुरत होती है । यानि एक साडी के लिए पूरे पचास हज़ार जीवों की हत्या की जाती है ।
रेशमी वस्त्र अपने चमक, कोमलता, रंग, शान और नफ़िसियत के लिए प्रसिद्द है । इन्हें धारण करना शानों शौकत की बात मानी जाती है । लेकिन हमें उसे बनाने के तरीकों को भी ध्यान में रखना चाहिए ।
रेशम के कीड़े का जीवन - वृत्त
रेशम उत्पादन केंद्र में पूर्ण विकसित नर और मादा पतंगों के मिलन की प्रक्रिया के बाद नर पतंगों को पकड़ कर बास्केट में डाल कर रेशम उत्पादन केन्द्रों के बाहर फैक दिया जाता है , जिसका उपयोग बाद में पशुओं को खिलाने के लिए किया जाता है ।
चार पाँच दिन के बाद अण्डों से निकले सूक्ष्म लार्वा या इल्ली शहतूत के पत्तों पर पलते हैं और उन्हीं पत्तों से अपना पोषण ग्रहण करते हैं । करीब एक महीने के बाद ये इल्लियाँ ..... केटरपिलर का रूप ले लेती हैं । ये कैटरपिलर अपने विकास के क्रम में पतंगा बनाने से पहले अपने मुंह से निकली लार के आवरण में अपने आप को लपेट लेते हैं । यह आवरण उनकी अन्य जीव- भक्षकों से रक्षा करता है लेकिन दुर्भाग्य से यही रक्षा कवच रेशम बनाने में उनकी हत्या का कारण बन जाता है ।
सामान्यता अपने रक्षा कवच को काट कर पतंगा बाहर निकलता है , बस इसी दौरान उसकी निर्ममता से हत्या कर दी जाती है । जब कोकून पूरी तरह से तैयार हो जाता है और उसके अन्दर का लार्वा अपने विकास के अंतिम चरण में होता है , रेशम निकालने की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है ।
लार्वा के पूर्ण विकसित होने के छह सात दिन पहले ही उसे 7 0 से 9 0 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान के गर्म पानी में तीन चार घंटे के लिए डाल दिया जाता है ।
नन्हा लार्वा घबराता है सुकड़ता है और गर्मी की तपन से अपनी रक्षा के लिए बनाये गए अपने ही कोया में ही दम तोड़ देता है । इस यातना मय प्रक्रिया से एक जीव का रक्षा कवच कफ़न में बदल जाता है । इसके पश्चात उनमें से रेशम का धागा निकाला जाता है ।
यह निर्ममता यहीं समाप्त नही हो जाती है । रेशम केन्द्रों में विकसित की गई आधी इल्लियों को उबाल कर रेशम प्राप्त किया जाता है और बाँकी कि बची आधी को पूर्ण पतंगा होने तक विकसित किया किया जाता है ताकि उनसे आगे अंडे प्राप्त किये जा सके ।
अच्छी क्वालिटी का रेशम, प्राप्त करने के लिए इन पतंगों के पर काट दिए जाते हैं । नर और मादा के मिलन के बाद ही ऐसा किया जाता है । अंडे देने के बाद उन्हें मार दिया जाता है क्योंकि वे अपने जीवन काल में एक बार ही अंडे दें सकती हैं । रोगग्रस्त पतंगों की निर्ममता से पूंछ को काट कर माइक्रोस्कोप से उसकी जाँच की जाती |
इन मरे हुए पतंगों का उपयोग रेशम का तेल, पाउडर , शैम्पू ,साबुन और अन्य कॉस्मेटिक प्रोडक्ट्स में किया जाता है ताकि त्वचा और बालों को नम , सुन्दर और मुलायम बनाया जा सके ।
पर्यावरण असंतुलन
रेशम प्राप्ति का सवाल केवल नृशंस अत्याचार का नही है वरण पर्यवरण संतुलन पर भी इसका अत्यंत प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । रेशम के पतंगें अनेक प्रकार के पौधों के परागण में काम आते हैं । आर्किड प्रजाति के लिए ये पतंगें बहुत महत्वपूर्ण हैं । ये पतंगे पौधों पर लगाने वाले आफिड नामक कीटों और फफूंद को नष्ट करते हैं । इसके साथ ये कीड़े खुद छिपकली, मकड़ी चमगादड़ इत्यदि का भोजन बनते हैं । रेशम के धागों के चक्कर में यह पूरा प्राकृतिक चक्र गड़बड़ा जाता है । अनेक जीवों का जीवन चक्र प्रभावित होता है । यह सब बातें पृथ्वी के पर्यावरण के संतुलन को बिगडती हैं ।
रेशम के अन्य विकल्प
गुजरात , महाराष्ट्र [पूना ] , असम में काफी सारे लोग कैस्टर के खेती करते हैं । कैस्टर के पौधों पर पालने वाले रेशम के कीड़ों को रेशम निकालने के लिए मारा नहीं जाता है । इसमें उन्हीं कोकून का इस्तमाल किया जात हैं जिनके लार्वा विकसित होकर उड़ गए होते हैं । यह प्रक्रिया श्रम साध्य है और इसमें अधिक मात्रा में कोयों की जरुरत पड़ती है , इसलिए अहिंसक रेशम [एनी सिल्क] अन्य रेशम के मुकाबले महंगा होता है ।
Salmalia Malabarica और Bombax Heptaphyllum पौधों की दो ऐसी प्रजातियाँ हैं जिनसे सिल्क - कॉटन प्राप्त किया जा सकता है , जिस प्रकार कपास के पौधों से कपास प्राप्त किया जाता है । plantain tree जैसे पौधों के फाइबर से भी रेशम प्राप्त किया जा सकता है , तमिलनाडु में कुछ समय पहले तक नार-पट्टू इसी फाइबर के रेशम का बनता था जिसका प्रयोग पूजा पाठ के लिए किया जाता था ।
जो जीवन का मूल्य समझते हैं , जो जीवों के प्रति दया का भाव रखते हैं वे रेशम का प्रयोग कम से कम करे और यदि करे भी तो एरी रेशम का प्रयोग करे । फिर चाहे इसकी चमक दमक जीवों की हत्या से बने रेशमी धागों से कम ही क्यों न हो ।
अब मर्जी आपकी .............
यह
या ............ यह
या ............ यह
Geeta Jha
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