मन्त्र क्या है ?
मननात् त्रायते इति मन्त्रः
जिसके मनन से त्राण मिले वह मन्त्र है . यह अक्षरों का ऐसा दुर्लभ एवं विशिष्ट संयोग है , जो आन्तरिक और बाह्य चेतना जगत को आंदोलित, आलोड़ित एवं उद्वेलित कर देता है .
मन्त्र का कोई अर्थ हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है . यह एक पवित्र विचार भी हो सकता है और नहीं भी हो सकता है . जैसे गायत्री महामंत्र सृष्टि का सबसे पवित्र विचार है उसमें परमात्मा से सभी के लिए सदबुद्धि एवं सन्मार्ग की प्रार्थना की गई है. लेकिन मन्त्र को किसी विचार की संकरी सीमाओं में नही बांधा जा सकता है . कई बार मन्त्र के अक्षरों का संयोजन इस परकार होता है की उनका कोई अर्थ निकलता है और कई बार संयोगं इतना अटपटा होता है की इसका कोई अर्थ नही खोजा जा सकता है .
दरसल मन्त्र की संरचना किसी विशेष अर्थ या विचार को ध्यान में रख कर नहीं की जाती है . इसका तो एक ही मतलब है की ब्रह्मांडीय उर्जा की किसी विशेष धारा से संपर्क, आकर्षण, धारण और उसके सार्थक नियोजन की विधि का विकास .
मन्त्र की संरचना कौन करने का अधिकारी है ?
मन्त्र कोई भी हो वैदिक, पौराणिक या तांत्रिक यह बात ध्यान में रखनी चाहिए की इनकी संरचना या निर्माण कोई बौद्धिक क्रियाकलाप नहीं है . कोई भी व्यक्ति भले ही वह कितना ही बुद्धिमान या प्रतिभा शाली क्यों न हों मन्त्रों की संरचना नहीं कर सकता है.मन्त्रों की संरचना वही कर सकता है जो तप साधना के शिखर पर पहुँच कर सूक्ष्म दृष्टा और दिव्य दर्शी बन गया हो .
ये महा साधक अपने तपोबल के माध्यम से ब्रह्मांडीय उर्जा के विभिन्न और विशिष्ट धाराओं को देखने में सक्षम होते हैं . मन्त्रों की अधिष्ठात शक्तियां जिन्हें देवी या देवता कहा जाता है , उन्हें प्रत्यक्ष करते है. और उस प्रत्यक्ष शक्ति के बिम्ब के रूप में मन्त्र का संयोजन उनकी भावचेतना में प्रगट होता हैं . उसे ऊर्जा धारा या देवशक्ति का शब्द रूप भी कह सकते हैं .
या कई बार ध्यान और तप की उच्च स्तिथि में तत्व दर्शी साधक के अंतर्मन में मन्त्रों के प्रवाह का जो चित्र बनता है उसी के आधार पर उसके अधिनायक देवताओं या दिव्य शक्तियों की आकृति का आंकलन किया जाता है .
मन्त्र विद्या में इसे देव शक्ति का मूल मन्त्र कहते हैं . इस देव शक्ति के उर्जा अंश के किस आयाम को और किस प्रयोजन के लिए ग्रहण-धारण करना है उसी के अनुसार उस देवता के अन्य मन्त्रों की संरचना या निर्माण किया जाता है . इसलिए एक देवी या देवता के अनेकों मन्त्र हो सकते है. प्रत्येक मन्त्र अपने विशिष्ट प्रयोजन को सिद्ध और सार्थक करने में समर्थ होता है .
मन्त्र सिद्धि क्या है ?
मन्त्र साधना का एक विशिष्ट क्रम पूरा होने पर साधक की चेतना का संपर्क ब्रह्माण्ड की विशिष्ट धारा या देव शक्ति से हो जाता है . साधक के कई अतीन्द्रिय केंद्र जागृत हो जाते है, और वह मन्त्र के देवशक्तियों के सूक्ष्म विशिष्ट धारा को ग्रहण करने धारण करने और उनका नियोजन करने में पूर्णतः समर्थ होता है . देवशक्ति के ऊर्जा शक्ति को अपने व्यक्तित्व और अस्तित्व में धारण करना ही मन्त्र सिद्धि कहलाता है.
मन्त्र सिद्धि कैसे हो ?
मात्र मन्त्रों को रटने और दोहराने भर से मन्त्र सिद्धि नहीं होती है . कई बार वर्षों से साधना करने और कई करोड़ मन्त्र जाप करने के बाद भी साधक को निराशा ही हाथ लगती है. और कई बार मन्त्र जाप का अत्यंत अल्प या आधा - अधूरा फल ही मिलता है। इस स्थिति के लिए मन्त्र नहीं बल्कि साधक ही जिम्मेदार होता है .
मन्त्र सिद्धि में चार तथ्य सम्मिश्रित रूप से काम करते है . इन चारों तथ्यों का जहाँ जितने अंश में समावेश होगा वहां उतने ही अनुपात में मन्त्र शक्ति का प्रतिफल , चमत्कार और सिद्धि दृष्टिगत होगी :
1 . ध्वनि विज्ञान के आधार पर विनिर्मित शब्द श्रृंखला का चयन और उसका विधिवत उच्चारण .
2 . साधक की संचित प्राणशक्ति और मानसिक एकाग्रता का संयुक्त समावेश .
3 . मन्त्र-जाप में प्रयुक्त होने वाली भौतिक उपकरणों की सूक्ष्म शक्ति .
4 . साधक की अपनी भावना, आस्था, श्रद्धा, विश्वास और उच्चस्तरीय लक्ष्य .
मन्त्र सिद्धि की सफलता का 3 /4 भाग इन्हीं चार तथ्यों पर आधारित है , विधि विधान को 1 /4 ही महत्त्व दिया गया है . इन दिनों आविश्वास , अन्यमनस्कता , उपेक्षा , उदासीनता अस्त-व्यस्त और मनमौजी ढंग के साथ साधक चिरकाल व्यतीत हो जाने और लम्बा कष्ट साध्य अनुष्ठान करने पर भी मन्त्र सिद्धि नही कर पाते हैं क्योंकि वे जीवन-साधना की उपेक्षा कर केवल विधि-विधान को ही सब कुछ मान बैठे हैं . ऐसे में सदा निराशा ही हाथ लगती है .
मन्त्र सिद्धि का विज्ञान
मन्त्र की एक प्रगट ध्वनि होती है जो वायु माध्यम में यात्रा करती है . दूसरी अप्रगट ध्वनियों होती हैं जो सूक्ष्म माध्यमों में यात्रा करती है . प्रथम अप्रगट ध्वनि सूक्ष्म प्राणशक्ति होती है जो ईथर माध्यम में यात्रा करती है और ईथर से भी सूक्ष्मतम अप्रगट ध्वनि भाव-शक्ति होती है जो आकाश माध्यम में यात्रा करती हैं .
वायु के कम्पन नष्ट हो जाते हैं लेकिन ईथर और आकाश तत्व के कंम्पन सदेव यथावत बने रहते हैं . वायु से ईथर और ईथर से आकाश माध्यम के परमाणु अधिक सूक्ष्म, सम्वेदनशील, शक्तिशाली और उत्तरोतर अधिक कम्प्पन वाले परमाणुओं से बने होते है. अतः ध्वनि तरंगों से तीव्र गति से उसकी प्राणशक्ति की तरंगें और प्राणशक्ति से भी तीव्र उसकी भावशक्ति की तरंगें चलती है .
ध्वनि की गति साधारणता बहुत धीमी होती है और साधरण अवस्था में यह 3 3 4 मीटर प्रति सेकंड की गति से ही चल पाती है . लेकिन रेडियो प्रसारण में एक छोटी सी आवाज़ [ साउंड वेव ] को इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेव्स [ जिसकी गति 1लाख 8 6 हज़ार मिल प्रति सेकंड होती है ] के ऊपर सुपर इम्पोज [ modulation ]कर दिया जाता है जिससे वह आवाज़ पलक झपकते ही सारे संसार की परिक्रमा कर लेने जितनी शक्तिशाली बन जाती है .
इसी प्रकार मन्त्र साधना में उच्चारित किये गए शब्द ध्वनियों को प्राण और भाव की शक्तिशाली तरंगों के ऊपर सुपर इम्पोज कर दिया जाता है जिनसे मन्त्र की शब्द शक्ति असीम विद्युत शक्ति में परिवर्तित हो जाती है तीव्र गति से चलते हुए कुछ की क्षणों में देव - शक्ति से टकरा जाती है , फिर उस देव शक्ति के स्थूल और सूक्ष्म प्रभाव साधक में परिलक्षित होने लग जाते हैं . यही मन्त्र सिद्धि की अवस्था होती है .
भावशक्ति और प्राणशक्ति युक्त मन्त्र [ ध्वनि ] अनंत ब्रह्माण्ड के साथ साथ अंतर्चेतना को भी प्रभावित करने में पूर्ण सक्षम होते हैं .
मन्त्र सिद्धि के लक्षण
जब मंत्र ,साधक के भ्रूमध्य या आज्ञा -चक्र में अग्नि - अक्षरों में लिखा दिखाई दे, तो मंत्र-सिद्ध हुआ समझाना चाहिए.
जब बिना जाप किये साधक को लगे की मंत्र -जाप अनवरत उसके अन्दर स्वतः चल रहा हैं तो मंत्र की सिद्धि होनी अभिष्ट हैं.
साधक सदेव अपने इष्ट -देव की उपस्थिति अनुभव करे और उनके दिव्य - गुणों से अपने को भरा समझे तो मंत्र-सिद्ध हुआ जाने.
शुद्धता ,पवित्रता और चेतना का उर्ध्गमन का अनुभव करे,तो मंत्र-सिद्ध हुआ जानें .
मंत्र सिद्धि के पश्च्यात साधक की शारीरिक,मानसिक और अध्यात्मिक इच्छाओं की पूर्ति होनें लग जाती हैं.
मन्त्र शक्ति वह तालबद्ध, समयबद्ध,क्रमबद्ध, अनुशासन बद्ध और विधानबद्ध ध्वनि - विज्ञान है जो प्रकृति को , वस्तुओं को , परिस्थियों को , वातावरण को और ब्रह्माण्ड को प्रभावित रखने की पूर्ण क्षमता रखता है.
By
Geeta jha
मननात् त्रायते इति मन्त्रः
जिसके मनन से त्राण मिले वह मन्त्र है . यह अक्षरों का ऐसा दुर्लभ एवं विशिष्ट संयोग है , जो आन्तरिक और बाह्य चेतना जगत को आंदोलित, आलोड़ित एवं उद्वेलित कर देता है .
मन्त्र का कोई अर्थ हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है . यह एक पवित्र विचार भी हो सकता है और नहीं भी हो सकता है . जैसे गायत्री महामंत्र सृष्टि का सबसे पवित्र विचार है उसमें परमात्मा से सभी के लिए सदबुद्धि एवं सन्मार्ग की प्रार्थना की गई है. लेकिन मन्त्र को किसी विचार की संकरी सीमाओं में नही बांधा जा सकता है . कई बार मन्त्र के अक्षरों का संयोजन इस परकार होता है की उनका कोई अर्थ निकलता है और कई बार संयोगं इतना अटपटा होता है की इसका कोई अर्थ नही खोजा जा सकता है .
दरसल मन्त्र की संरचना किसी विशेष अर्थ या विचार को ध्यान में रख कर नहीं की जाती है . इसका तो एक ही मतलब है की ब्रह्मांडीय उर्जा की किसी विशेष धारा से संपर्क, आकर्षण, धारण और उसके सार्थक नियोजन की विधि का विकास .
मन्त्र की संरचना कौन करने का अधिकारी है ?
मन्त्र कोई भी हो वैदिक, पौराणिक या तांत्रिक यह बात ध्यान में रखनी चाहिए की इनकी संरचना या निर्माण कोई बौद्धिक क्रियाकलाप नहीं है . कोई भी व्यक्ति भले ही वह कितना ही बुद्धिमान या प्रतिभा शाली क्यों न हों मन्त्रों की संरचना नहीं कर सकता है.मन्त्रों की संरचना वही कर सकता है जो तप साधना के शिखर पर पहुँच कर सूक्ष्म दृष्टा और दिव्य दर्शी बन गया हो .
ये महा साधक अपने तपोबल के माध्यम से ब्रह्मांडीय उर्जा के विभिन्न और विशिष्ट धाराओं को देखने में सक्षम होते हैं . मन्त्रों की अधिष्ठात शक्तियां जिन्हें देवी या देवता कहा जाता है , उन्हें प्रत्यक्ष करते है. और उस प्रत्यक्ष शक्ति के बिम्ब के रूप में मन्त्र का संयोजन उनकी भावचेतना में प्रगट होता हैं . उसे ऊर्जा धारा या देवशक्ति का शब्द रूप भी कह सकते हैं .
या कई बार ध्यान और तप की उच्च स्तिथि में तत्व दर्शी साधक के अंतर्मन में मन्त्रों के प्रवाह का जो चित्र बनता है उसी के आधार पर उसके अधिनायक देवताओं या दिव्य शक्तियों की आकृति का आंकलन किया जाता है .
मन्त्र विद्या में इसे देव शक्ति का मूल मन्त्र कहते हैं . इस देव शक्ति के उर्जा अंश के किस आयाम को और किस प्रयोजन के लिए ग्रहण-धारण करना है उसी के अनुसार उस देवता के अन्य मन्त्रों की संरचना या निर्माण किया जाता है . इसलिए एक देवी या देवता के अनेकों मन्त्र हो सकते है. प्रत्येक मन्त्र अपने विशिष्ट प्रयोजन को सिद्ध और सार्थक करने में समर्थ होता है .
मन्त्र सिद्धि क्या है ?
मन्त्र साधना का एक विशिष्ट क्रम पूरा होने पर साधक की चेतना का संपर्क ब्रह्माण्ड की विशिष्ट धारा या देव शक्ति से हो जाता है . साधक के कई अतीन्द्रिय केंद्र जागृत हो जाते है, और वह मन्त्र के देवशक्तियों के सूक्ष्म विशिष्ट धारा को ग्रहण करने धारण करने और उनका नियोजन करने में पूर्णतः समर्थ होता है . देवशक्ति के ऊर्जा शक्ति को अपने व्यक्तित्व और अस्तित्व में धारण करना ही मन्त्र सिद्धि कहलाता है.
मन्त्र सिद्धि कैसे हो ?
मात्र मन्त्रों को रटने और दोहराने भर से मन्त्र सिद्धि नहीं होती है . कई बार वर्षों से साधना करने और कई करोड़ मन्त्र जाप करने के बाद भी साधक को निराशा ही हाथ लगती है. और कई बार मन्त्र जाप का अत्यंत अल्प या आधा - अधूरा फल ही मिलता है। इस स्थिति के लिए मन्त्र नहीं बल्कि साधक ही जिम्मेदार होता है .
मन्त्र सिद्धि में चार तथ्य सम्मिश्रित रूप से काम करते है . इन चारों तथ्यों का जहाँ जितने अंश में समावेश होगा वहां उतने ही अनुपात में मन्त्र शक्ति का प्रतिफल , चमत्कार और सिद्धि दृष्टिगत होगी :
1 . ध्वनि विज्ञान के आधार पर विनिर्मित शब्द श्रृंखला का चयन और उसका विधिवत उच्चारण .
2 . साधक की संचित प्राणशक्ति और मानसिक एकाग्रता का संयुक्त समावेश .
3 . मन्त्र-जाप में प्रयुक्त होने वाली भौतिक उपकरणों की सूक्ष्म शक्ति .
4 . साधक की अपनी भावना, आस्था, श्रद्धा, विश्वास और उच्चस्तरीय लक्ष्य .
मन्त्र सिद्धि की सफलता का 3 /4 भाग इन्हीं चार तथ्यों पर आधारित है , विधि विधान को 1 /4 ही महत्त्व दिया गया है . इन दिनों आविश्वास , अन्यमनस्कता , उपेक्षा , उदासीनता अस्त-व्यस्त और मनमौजी ढंग के साथ साधक चिरकाल व्यतीत हो जाने और लम्बा कष्ट साध्य अनुष्ठान करने पर भी मन्त्र सिद्धि नही कर पाते हैं क्योंकि वे जीवन-साधना की उपेक्षा कर केवल विधि-विधान को ही सब कुछ मान बैठे हैं . ऐसे में सदा निराशा ही हाथ लगती है .
मन्त्र सिद्धि का विज्ञान
मन्त्र की एक प्रगट ध्वनि होती है जो वायु माध्यम में यात्रा करती है . दूसरी अप्रगट ध्वनियों होती हैं जो सूक्ष्म माध्यमों में यात्रा करती है . प्रथम अप्रगट ध्वनि सूक्ष्म प्राणशक्ति होती है जो ईथर माध्यम में यात्रा करती है और ईथर से भी सूक्ष्मतम अप्रगट ध्वनि भाव-शक्ति होती है जो आकाश माध्यम में यात्रा करती हैं .
वायु के कम्पन नष्ट हो जाते हैं लेकिन ईथर और आकाश तत्व के कंम्पन सदेव यथावत बने रहते हैं . वायु से ईथर और ईथर से आकाश माध्यम के परमाणु अधिक सूक्ष्म, सम्वेदनशील, शक्तिशाली और उत्तरोतर अधिक कम्प्पन वाले परमाणुओं से बने होते है. अतः ध्वनि तरंगों से तीव्र गति से उसकी प्राणशक्ति की तरंगें और प्राणशक्ति से भी तीव्र उसकी भावशक्ति की तरंगें चलती है .
ध्वनि की गति साधारणता बहुत धीमी होती है और साधरण अवस्था में यह 3 3 4 मीटर प्रति सेकंड की गति से ही चल पाती है . लेकिन रेडियो प्रसारण में एक छोटी सी आवाज़ [ साउंड वेव ] को इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेव्स [ जिसकी गति 1लाख 8 6 हज़ार मिल प्रति सेकंड होती है ] के ऊपर सुपर इम्पोज [ modulation ]कर दिया जाता है जिससे वह आवाज़ पलक झपकते ही सारे संसार की परिक्रमा कर लेने जितनी शक्तिशाली बन जाती है .
इसी प्रकार मन्त्र साधना में उच्चारित किये गए शब्द ध्वनियों को प्राण और भाव की शक्तिशाली तरंगों के ऊपर सुपर इम्पोज कर दिया जाता है जिनसे मन्त्र की शब्द शक्ति असीम विद्युत शक्ति में परिवर्तित हो जाती है तीव्र गति से चलते हुए कुछ की क्षणों में देव - शक्ति से टकरा जाती है , फिर उस देव शक्ति के स्थूल और सूक्ष्म प्रभाव साधक में परिलक्षित होने लग जाते हैं . यही मन्त्र सिद्धि की अवस्था होती है .
भावशक्ति और प्राणशक्ति युक्त मन्त्र [ ध्वनि ] अनंत ब्रह्माण्ड के साथ साथ अंतर्चेतना को भी प्रभावित करने में पूर्ण सक्षम होते हैं .
मन्त्र सिद्धि के लक्षण
जब मंत्र ,साधक के भ्रूमध्य या आज्ञा -चक्र में अग्नि - अक्षरों में लिखा दिखाई दे, तो मंत्र-सिद्ध हुआ समझाना चाहिए.
जब बिना जाप किये साधक को लगे की मंत्र -जाप अनवरत उसके अन्दर स्वतः चल रहा हैं तो मंत्र की सिद्धि होनी अभिष्ट हैं.
साधक सदेव अपने इष्ट -देव की उपस्थिति अनुभव करे और उनके दिव्य - गुणों से अपने को भरा समझे तो मंत्र-सिद्ध हुआ जाने.
शुद्धता ,पवित्रता और चेतना का उर्ध्गमन का अनुभव करे,तो मंत्र-सिद्ध हुआ जानें .
मंत्र सिद्धि के पश्च्यात साधक की शारीरिक,मानसिक और अध्यात्मिक इच्छाओं की पूर्ति होनें लग जाती हैं.
मन्त्र शक्ति वह तालबद्ध, समयबद्ध,क्रमबद्ध, अनुशासन बद्ध और विधानबद्ध ध्वनि - विज्ञान है जो प्रकृति को , वस्तुओं को , परिस्थियों को , वातावरण को और ब्रह्माण्ड को प्रभावित रखने की पूर्ण क्षमता रखता है.
By
Geeta jha
बहुत ही बढ़िया लेख है गीताजी . बहुत दिनों से ढूँढ रहा था, आज जाकर मिला .आपका बहुत बहुत धन्यवाद् और आभार
ReplyDeleteआनंद गुप्ता