Thursday, October 30, 2014

आध्यात्मिक राह पर अधिक कष्ट क्यों होते हैं ?


अधिकत्तर लोगों का यह सवाल होता है की उस व्यक्ति ने इतना पूजा पाठ किया , साधना की, मंत्रानुष्ठान किया ,सत्संग किया , ध्यान किया फिर भी उसके जीवन में दुःख बना ही हुआ है ।  बल्कि आध्यत्मिकता की राह में चलने वालों के जीवन में साधारण अस्वथा से अधिक दुःख देखा जाता है । इसलिए कभी कभी लोग कहते हैं की भगवान दुःख देकर भक्तों की परीक्षा लेते हैं या आध्यत्मिक -राह दोधारी तलवार पर चलने के समान  कठिन है जिसके दोनों तरफ खाई है । 

क्या वास्तव में ईश्वर भक्तों को दुःख देकर उनकी परीक्षा लेते हैं या लोगों के मन में यह  गलत धारणा बनी  हुई है की आध्यात्म एक जादुई औषधि है जो  व्यक्ति को सभी प्रकार के कष्टों से मुक्त कर देती है । अक्सर लोग अध्यात्म को पलायनवादिता से जोड़ कर देखते हैं की उस इंसान में दुखों को सहन करने की क्षमता नहीं थी तो उसने आध्यतम का चोला धारण कर लिए ।

बुद्ध, महावीर,ईसामसीह ,मीरा,तुलसीदास, कबीरदास,तुकाराम,संत ज्ञानेश्वर  के जीवन के संघर्ष सर्वविदित हैं । रमन महर्षि और रामकृष्ण परमहंस को कैंसर के कारण  अत्याधिक  शारीरिक  कष्ट  हुआ था ।  तो मन में यह विचार उठता ही है की आध्यात्म  के राह पर चलने वाले क्या अन्य लोगों से अधिक कष्ट पाते हैं ?

आध्यत्मिकता में भ्रान्ति या विरोधाभास निम्न कारणों से देखा जाता है
  1. अक्सर लोग सोचते हैं आध्यत्मिकता का सफर शुरू करते ही सिर  पर आनंद रूपी  पुष्पों की बरसात होगी  और क़दमों के नीचे समस्त सुखों के गलीचे बिछ जाएंगें ।  उनके जीवन की सभी समस्याएं एक झटके में सुधर जाएंगीं ।इंस्टेंट नूडल्स की भाँति अपेक्षित फल  शीघ्र प्राप्त होता न  देख साधक के मन में आध्यात्म की सार्थकता को लेकर संशय हो जाता है । 
  2. साधारण अवस्था से अधिक आध्यात्मिकता के मार्ग पर चलने वालों के जीवन में अधिक विपत्ति,कष्ट ,कलह , रोग,दुःख देखा जाता है उसका क्या कारण है ? 
  3. जब आध्यात्मिकता के मार्ग पर भी शारीरिक और मानसिक कष्ट मिलते ही हैं तो इस मार्ग पर चला ही क्यों जाए ?
आध्यात्म क्या है ?

अंतःकरण का परिमार्जन और परिष्कार ही आध्यात्म है । 
साधारण शब्दों में कह सकते हैं की अध्यात्म का अर्थ है आपने आप को जानो, अपने को समझो और अपने को सुधारो ।  बाँकी सत्संग,चिंतन, कथा-कीर्तन, स्वाध्याय ,ध्यान ,धारणा  , योग ,मन्त्र जाप, भक्ति, आदि केवल मन को निर्मल और परिष्कृत   करने के तरीके मात्र  हैं  |

आपने वास्तविक स्वरूप को  समझाना ही अध्यात्म है । जिस प्रकार  से एक किरण सूर्य का अंश होती हुई भी उससे पृथक दिखाई  देती उसी प्रकार आत्मा परमात्मा का अंश होते हुए भी पृथक जान पड़ती है । आत्मा का ज्ञान या आत्म-  सक्ष्ताकार ही परमात्मा को जाना है या ईश्वर दर्शन है ।

क्या ईश्वर कष्ट  देते हैं ? 

ईश्वर एक   साक्षी तत्व है , वे  प्राणियों के दैनिक काम काज में हस्तक्षेप नहीं करते  है । भगवान अपनी इच्छा से किसी को दंड या पुरस्कार नही देते हैं । ईश्वर ने सर्वत्र स्वसंचालित व्यवस्था की है जिसमें प्रत्येक प्राणी अपने कर्मानुसार ही अच्छे या बुए फल प्राप्त करता है ।

मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है लेकिन उसके परिणाम भोगने  की श्रृंखला  से मजबूती से जकड़ा हुआ है यही ईश्वरीय नियम है, ईश्वरीय व्यवस्था है  । जब तक कारण शरीर में अंकित संस्करों के सूक्ष्म फलों का न भोगा जाए तब तक अंतकरण के ऊपर मैल की परत जमी रहती है ।

इस जन्म के ज्ञात पापों से लेकर जन्म जन्मों तक के अज्ञात  पापों का निराकरण जरुरी है ।  कपड़े की रंगाई  से पहले धुलाई जरुरी है । इसलिए आत्मिक प्रगति में अभिवर्धन [पोषण] से भी जरुरी परिशोधन [सफाई ]है । अपनी गतिविधियों को सुधारा जाए , गुण   स्वाभाव  कर्म को सुधारा जाए । 
आध्यात्म में अंतर्मन की सफाई और सुधार की क्या आवश्यकता है ?

वस्तुतः हम जो भी कर्म करते हैं उसका सूक्ष्म प्रभाव हमारी आत्मा पर पड़ता है । हमारी आत्मा के चारो और स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर के तीन आवरण हैं । हम जो भी कार्य करते हैं उसका प्रभाव स्थूल -शरीर तक सिमित नहीं रहता है बल्कि छनकर सूक्ष्म शरीरों तक चला जाता  है । जैसे  संगीत रिकॉर्डिंग में कितने ही प्रकार के वाद्य - यंत्रों का प्रयोग किया जाए लेकिन रिकॉर्ड में उनके स्थूलता की अवश्कता नही पड़ती केवल सार रूपमें सभी ध्वनियां रिकॉर्ड में अंकित हो जाती है उसी प्रकार से मृत्यु के पश्चात किये गए कर्मों के सूक्ष्म भाग जिन्हें संस्कार भी कहा जाता है आत्मा के साथ साथ चलते हैं ।  जीवन में ये संस्कार ही अच्छे या बुरे फल उत्पन्न करते हैं |

आत्मिक मार्ग में परिशोधन की प्रक्रिया में अंतःकरण में जन्मों जन्मों के  जमे हुए कुसंस्कार और उनके फल तेजी से निकलने लगते हैं ,जब लोगों को लगता है की आध्यतम मार्ग कष्टों और काँटों से भरा हुआ है । लेकिन दंड भुगतने, क्षतिपूर्ति करने और  भविष्य  में ऐसी गलती न  करने का संकल्प ले कर आगे बढ़ने से आत्म सुधार का और अँधेरे को  प्रकाश में बदलने का अवसर मिलता है ।यह उसी प्रकार है , जैसे आप एक बड़े हाल की सफाई हाथों में झाड़ू लेकर करो जो एक धीमी प्रक्रिया है , या वैक्यूम क्लीनर लेकर सफाई करो जो सफाई की  एक तीव्र प्रक्रिया है या अन्य उन्नत विकसित यंत्रों के माध्यम से तीव्रतम गति से सफाई करो  । आध्यात्म भी अंतःकरण की  सफाई की एक तीव्रतम प्रक्रिया है ।  

परमात्मा तो स्वयं उपलब्ध है उसे पाने के लिए कुछ नहीं करना  होता है ।  करने की बात केवल इतनी है जो बेकार है गैर जरुरी  है  जो जो अपने भीतर  भर लिया है उसे निकाल कर फेंक देना , यही  अंतर्मन का परिशोधन है, अंतःकरण की शुद्धि है , इसके पश्चात ही आत्मा का अविनाशी और अविचल स्वरूप का ज्ञान हो पता है । अपनी आत्मा को जानना ही परमात्मा को जानना है ।

अध्यात्म के मार्ग पर कष्ट क्यों होते हैं ?
  1. आध्यत्मिक मार्ग में अंतःकरण  अपने ऊपर जमा  विजातीय द्रव्यों को निकाल फेंकने के लिए अत्यंत व्यग्र हो जाता  है । तब हमारी अन्तःचेतना ऐसी स्थिति, परिस्थिति या वातावरण का तेज़ी से निर्माण करने में  लग  जाती जिनके द्वारा दंड का कार्य जल्दी जल्दी  पूरा हो सके । और अंतःकरण शुद्ध  हो सके । इन्ही के चलते कभी कभी लगता है जैसे  शारीरक, मानसिक , पारिवारिक, सामजिक  विपत्तियों का पहाड़ ही टूट पड़ा हो । 
  2. आजकल अंदर से पापात्मा और बाहर से धर्मात्मा दिखने का काफी प्रचलन  हो गया है । एक अज्ञानी व्यक्ति अपराध करे तो उसे उतना बड़ा दंड नहीं मिलेगा जितना एक नैतिक और चरित्रिक रूप से गिरे हुए आध्यत्मिक मार्ग पर चलने वाले इंसान को मिलेगा ।
  3. कई बार आध्यत्म के मार्ग पर चलने वाले लोग स्वेच्छा से लोक कल्याण और आत्मोन्नति के लिए  नाना प्रकार के दुःख उठाते हैं , जिन्हें दुष्कर्मों का फल नहीं कहा जा सकता है ।  जैसे कहा जाता  है की राम कृष्ण परमहंस करुणा के वशीभूत होकर लोगों के रोगों को  अपने  शरीरी में धारण कर लेते थे ।  
जब अध्यात्म के मार्ग पर इतना कष्ट है तो इस पर चला ही क्यों जाए

क्या  एक डॉक्टर या उसके परिवार के सभी लोग  यह कह सकते हैं की वे कभी बीमार नहीं पड़ेंगें ?क्या  इस डर से लोग चिकित्सक का व्यवसाय या पढ़ाई छोड़ देते हैं | अतः अध्यात्म के मार्ग पर  आने वाले दुखों , विपत्तियों को ईश्वर का  कोप या परीक्षण न समझ कर आत्मशोधन की प्रकिया मात्र समझना  चाहिए और  निरंतर इस पथ बढ़ना चाहिए । आपने आत्मस्वरूप को पहचानना ही परमात्मा को उपलब्ध होना है ।

आध्यात्म के मार्ग पर विपत्ति आये तो अपने को पापी,अभागा या इसमें  ईश्वर का अन्याय न सोच कर आपने सत्यता की परीक्षा देकर स्वर्ण के समान चमकाने वाले दुःख मात्र ही समझना चाहिए । हो सकता है ,उस कष्ट की तह में कोई ऐसा लाभ छुपा हो जो हमारा अल्पज्ञ मस्तिष्क ठीक ठीक रूप से पहचान न सका हो । 

द्वारा 
गीता झा

Monday, October 27, 2014

Real Estate Properties in Astrology

Real estate property is an immovable property refers to land, fixture and appurtenances or anything permanent in nature like structures, tress, minerals, and the interest, benefits, and inherent rights.
                     
                          
Generally real estate properties include
Vacant land
Farm and ranch
Residential properties
   Different types of homes, including condominiums, separate homes, duplexes, high value homes, vacations homes, etc.
Commercial properties
Commercial property can be empty land zoned for commercial use, or an existing business building or buildings.

Factors responsible for having real estate properties
4th house/lord: represents home and property related matters.
Mars and Saturn: are main significator planets of property and home related matters.
Venus: represents luxuries and valuable things. 
 
 Different combination for having real estate properties
  1. Lord of 4th house is in exaltation/own sign/friendly sign/associated or aspected by benefice, indicates the surplus real estate property of the native.
  2. Lord of 4th posited in 10th and 10th lord is posited in 4th house, aspected by Mars or having a strong Mars in the horoscope denotes surplus real estate property.
  3. Lord of 4th is posited in 4th house and aspected by a benefice indicates the native will have surplus of land and excess of houses, which will fill his life with joy and happiness.
  4. Lords of 4th and 9th placed in 11th and aspected by benefice, native will be the owner of lands and many houses.
  5. Lord of 4th and Jupiter placed together in quadrant indicate excess of land and houses.
  6. Sign of house/Lord of 4th is of moveable nature indicates the native will have multiple real estate properties in many places.
  7. Lord of 4th posited in 2nd/11th indicates the native will get excess of land property.
  8. Lords of ascendant, 3rd, 4th, 6th, 7th, 9th and 12th are with the lord of 5th indicates the native will have high quality mine land. 
  9. Lord of ascendant is placed in 2nd, and lord of 2nd is placed in 11th and the lord of 11th is posited in ascendant, indicates the ownership of mining property.
  10. Lords of 4th and11th exchange their houses; the native will get unexpected property.
  11. Lord of 4th and 9th posited in 11th house and lord of 2nd placed in 10th house; indicate the sudden gain of real estate properties.
Denial of real estate property in horoscope
  1. Lord of 4th is debilited/set/inimical placed/associated or aspected with malefic/hammed between malefic planets, indicate absence or loss of real estate properties.
  2. Mars is debilited/set/inimically placed/associated or aspected by malefic, indicates absence of real estate property.
BY
GEETA JHA 
INDIA

Monday, October 20, 2014

माई री मैं कासे कहूँ पीर अपने जिया की


माई री मैं कासे कहूँ पीर अपने जिया की
ओस नयन की उनके मेरी लगी को बुझाए ना
तन - मन भिगो दे आके ऐसी घटा कोई छाए ना
मोहे बहा ले जाए ऐसी लहर कोई आए ना
 
ओस नयन की उनके मेरी लगी को बुझाए ना
पड़ी नदिया के किनारे मैं प्यासी
....
माई री मैं कासे कहूँ पीर अपने जिया की
पी की डगर में बैठे मैला हुआ रे मोरा आँचरा
कोई जो देखे मैया प्रीत का वासे कहूं 
माजरा
मुखड़ा है फीका-फीका नैनों में सोहे नाहीं काजरा
पी की डगर में बैठा मैला हुआ रे मोरा आँचरा
लट में पड़ी कैसी बिरहा की माटी
.....
माई री मैं कासे कहूँ पीर अपने जिया की
आँखों में चलते फिरते रोज मिले पिया बावरे
बैंयाँ की छैयाँ आके मिलते नहीं कभी साँवरे
दुख ये मिलन का लेकर काह करूँ कहाँ जाउँ रे
आँखों में चलते फिरते रोज मिले पिया बावरे
पाकर भी नहीं उनको मैं पाती
....
माई री मैं कासे कहूँ पीर अपने जिया की


Friday, October 17, 2014

Huna –Mystic Power of the Ancients

The word HUNA means secret in Hawaiian. It refers to a body of knowledge that has its origins in antiquity. In many ways it is a mystery school. The body of information we call HUNA was not openly discussed and it was appararently never written down. The techniques were passed from initiate to initiate for thousands of generations.  The initiates were called KAHUNA [keeper of secrets]. KAHUNA possess the divine power to perform miracles but they also possessed an incredible esoteric knowledge.

HUNA is a system of mind, body, spirit integration and healing. In HUNA psychology there are three selves in one man. The three selves of HUNA are the lower self, the middle self, the higher self. They are so called because of their psychical locations. The lower-self is located in that area of body known as "SOLAR PLEXUS''. The middle-self is located in the head and the higher-self is situated at about five feet above the head.


The Lower-self is equated to subconscious mind, middle self is commonly referred to conscious mind, whereas Higher-self is used for super conscious minds.  The Middle-self is our awakened conscious mind that is part of us which we are mostly aware and by which we reason, think and make decisions. The Lower-self is the sea of feeling and emotions. The Lower-self can be commanded and instructed to do things by middle self.

The Higher-self is the spiritual part of man being the most enlighten part of his nature. It is located five feet above the body and connected to right side of head by means of a silver cord. The Higher-self is so close to us actually longs to help us through our difficulties. It has power to solve them in a very definite manner, if only we would seek its help. It is a curious fact that high self never intervene in one's affair unless its help is specifically asked for.

You have to learn to communicate with your Higher-self and a new life of unlimited happiness, love and accomplishment can be yours. The three selves are connected by means of an invisible cord which KAHUNA called AKA-CORD.

Nothing alive exits without life force energy when someone died he stopped breathing. Hence breath or "Mana" becomes the symbol of life force energy.

KAHUNA reorganizes the vital importance of PRANIC energy in performing miracles. The PRANA is the substance with which we want to accomplish some objectives for us. The PRANA is breathed in by the conscious Middle-self and is sent up to Higher-self. The Middle-self takes the PRANA then the Lower-self converts it and Higher-self uses it.

HUNA RITUAL OUTLINED:
  1. Sit comfortably with closed eyes. Take 7 or 8 deep breaths. Completely aware of vital prana entering your body
  2. Now visualise the absorbed prana being converting into a very high voltage silver white ball in your solar plexus.
  3. Now see a tremendous flow of white light surging up out of your solar plexus. Like an active volcano erupting thousands of volts of shattering spiritual electricity.
  4. As this light shoots out of your head see it widen into a ball of about four or five feet diameter.
  5. You are now making contact with Higher-self.
  6. Now without hesitation see within this circle of light that you seek as being already accomplished. Believe that it is already yours.
  7. Now feel totally and completely that your goal is already accomplished. Believe that it is already on its way to you.
  8. Now thank your Higher-self for accomplishing your will.
  9. You should aim to perform the ritual every day until your goal is completely achieved.
  10. Do not despair if nothing happened after a few weeks .Your higher self will never let you down. Trust in it completely. It will answer your dreams.
BY
GEETA JHA
INDIA

Thursday, October 9, 2014

कुंडली में चिकित्सा व्यवसाय


चिकित्सा व्यवसाय के कारक  तत्व 

लग्न  भाव / स्वामी  : स्वयं का प्रतिनिधित्व 


षष्ट  भाव /स्वामी  : रोग का प्रतिनिधि कारक 


दशम भाव/स्वामी  : आजीविका कारक 


द्वितीय एवं एकादश भाव / स्वामी : धन  एवं आय के कारक 


शनि  :रोग कारक


सूर्य  : चिकित्सा कारक 

मंगल :सर्जरी 


चन्द्रमा  : दवाइयों का कारक 


चिकित्सा व्यवसाय के लिए योग 
  1. पंचम , षष्ठ ,नवम ,दशम और  द्वादश भाव/ स्वामी का आपस में सम्बन्ध । 
  2. गुरु का लग्न/पंचम /दसम भाव/स्वामी से सम्बन्ध । 
  3. चन्द्रमा पाप पीड़ित होना  । 
  4. चन्द्रमा ६/८/१२/ भाव होना में या उनके स्वामी के साथ होना ।
  5. छठा  भाव रोग का है तथा बारहवें घर को अस्पताल का घर कहा जाता है , लिये छठे घर व बारहवें घर का सम्बध जितना प्रगाढ बनेगा, डाक्टर बनने की संभावना उतनी ही अधिक होगी
  6. छठे घर से एसे रोग देखे जाते है. जिनके ठीक होने की अवधि एक साल की होती है. तथा आठवे भाव से लम्बी अवधि के रोग देखे जाते है | दशम/ दशमेश का संबध दोनों में से जिस भाव से अधिक आयेगा व्यक्ति उस प्रकार की बीमारियों का चिकित्सक बनेगा |
  7. कुण्डली के पंचम भाव को शि़क्षा का भाव कहा जाता है. किसी भी तकनीकी शिक्षा का आजीविका के रुप में परिवर्तित होना तभी संभव है जब पंचम भाव पंचमेश का सीधा संबध दशम भाव या दशमेश से बन जाये |
  8. अगर कुण्डली में लग्न में मंगल स्वराशि या उच्च राशि में हो तो व्यक्ति में सर्जरी से संबन्धित चिकित्सक बनने की योग्यता आती है| मंगल से साहस आता है. रक्त को देख व्यक्ति में घबराहट नहीं आती है. दोनों का संबध डाक्टर से होता है | 
  9. कुण्डली में लाभेश रोगेश की युति लाभ घर में हो तथा मंगल,चन्द्र, सूर्य भी शुभ होकर अच्छी स्थिति में हों तो व्यक्ति चिकित्सा क्षेत्र से जुडता है.
  10. दशम/दशमेश का संबध समाज के भाव चौथे से अधिक आने पर व्यक्ति अपने पेशे का उपयोग सेवा कार्य के लिये करता है और आय के साथ उसे मान और सम्मान भी मिलता है ।    
कुछ डॉक्टर्स के  होरोस्कोप 

25 /1 /1965 { 17 :45 }


लग्नेश चन्द्र और षष्ठेश वृहस्पति में दृष्टि सम्बन्ध ।

षष्ठेश  वृहस्पति दशम भाव में एवं षष्ठम  भाव पर दृष्टि । 
आयेश शुक्र षष्ठम  भाव में ।

जातक बच्चों का डॉक्टर है । 


18 /11/1955{00:30}


जातक अस्थिरोग  विशेषज्ञ है । 

लग्नेश, षष्ठेश  और दशमेश की युति एवं दशम भाव  भाव पर दृष्टि । 

षष्ठेश शनि की षष्ठम  भाव पर दृष्टि । 

8/1/1972 {9:13}


षष्ठेश बुद्ध चिकित्सा कारक  सूर्य के साथ युत्ति ,दोनों ग्रह  की षष्ठम  भाव  पर दृष्टि |

दसमेश का रोग कारक शनि के साथ राशि परिवर्तन |


दशमेश शुक्र ,सिंह नवांश में । 


4/2/1973 {20:50}


लग्नेश सूर्य षष्ठ भाव में । 

षष्ठेश और दशमेश में राशिपरिवर्तन सम्बन्ध । 

आयेश और धनेश बुद्ध षष्ठम भाव में ।



5/7/1974 {00:15 }

 

लग्नेश और दशमेश की पूर्ण दृष्टि षष्ठम भाव और षष्ठमेश  पर । 

षष्ठेश की पूर्ण दृष्टि दशम भाव पर । 

आयेश और षष्ठेश की युत्ति ,और आयेश शनि की  तीसरी दृष्टि षष्ठम  भाव पर । 

4/5/1934 {16:47}


षष्ठेश  शनि   षष्ठम  भाव में बलवान स्थिति में । 

षष्ठेश की दृष्टि लग्नेश पर ।

षष्ठेश की दृष्टि दसमेश पर । 


बुद्ध लग्नेश और दशमेश होकर बलि सूर्य के साथ युक्त । 


गीता झा 


Tuesday, October 7, 2014

Urogenital Disorders in Astrology

Urogenital is a term used for the urinary and genital organs. Urology is the branch of medicine concerned with the urinary tract in both genders and the genital tract or reproductive system in the male. A urologist is a physician who has specialized knowledge and skill regarding problems of the male and female urinary tract and the male reproductive organs 

The Urogenital disorders may include many diseases like kidney incompetence or failure, urinary tract infections, kidney stones, prostate enlargement, and bladder control problems. The problems in the urogenital system may be caused by genetic abnormalities, aging, illness, injury, pollution etc.
Astrological prediction of urogenital disorders in the native's life is possible by carefully analysing his horoscope

Factors responsible for urogenital disorders
Moon/4th house: genito and urinary derangements, testicles
Mars: inflammation, infections
Mercury: genito urinary problems
Jupiter: degeneration, diabetes
Venus: suppression of urine, venereal complaints
Saturn/Rahu : obstruction to the metabolism process, chronicle diseases
Sign Virgo/6th house: venereal diseases
Sign Libra/7th house: nephritis, renal troubles, calculi, and uriters
Sign Scorpio/8th house: bladder, testicles
Different combinations for urogenital disorders
  1. Venus posited in 6th/8th/12th or associated with the lord of 6th creates genital problems
  2. Lords of ascendant and 6th associated with Mercury and Rahu, genital disorders are indicated
  3. Venus, Saturn and Mars placed in 7th
  4. Venus in 7th aspected by Saturn and Mars
  5. Lord of ascendant is posited in 6th and the 6th lord is associated with Mercury, possibility of having urological problems
  6. Lord of 6th, Mercury and Rahu posited in ascendant, creates problem in urogenital organs
  7. Lord of 6th and Mars placed together without having the influence of any benefice planet causes genital problems
  8. Moon is in water sign [Cancer, Scorpio, Pisces], and lord of the Moon sign is placed in 6th and aspected by Mercury or any other planet of water sign, creates urological problems.
  9. Lords of 4th and 7th posited in 6th/8th/12th house.
  10. Lords of 4th and 7th placed in inimical signs and aspected by malefic
  11. Lord of 3rd, Mercury and Mars placed in ascendant.
  12. Lord of 6th/7th associated with lord of 12th and aspected by Saturn, indicates urogenital disorders.
  13. Lord of 3rd, Mercury, Mars and Saturn placed in  ascendant, renal calculi is possible

BY
GEETA JHA 
INDIA