अधिकत्तर लोगों का यह सवाल होता है की उस व्यक्ति ने इतना पूजा पाठ किया , साधना की, मंत्रानुष्ठान किया ,सत्संग किया , ध्यान किया फिर भी उसके जीवन में दुःख बना ही हुआ है । बल्कि आध्यत्मिकता की राह में चलने वालों के जीवन में साधारण अस्वथा से अधिक दुःख देखा जाता है । इसलिए कभी कभी लोग कहते हैं की भगवान दुःख देकर भक्तों की परीक्षा लेते हैं या आध्यत्मिक -राह दोधारी तलवार पर चलने के समान कठिन है जिसके दोनों तरफ खाई है ।
क्या वास्तव में ईश्वर भक्तों को दुःख देकर उनकी परीक्षा लेते हैं या लोगों के मन में यह गलत धारणा बनी हुई है की आध्यात्म एक जादुई औषधि है जो व्यक्ति को सभी प्रकार के कष्टों से मुक्त कर देती है । अक्सर लोग अध्यात्म को पलायनवादिता से जोड़ कर देखते हैं की उस इंसान में दुखों को सहन करने की क्षमता नहीं थी तो उसने आध्यतम का चोला धारण कर लिए ।
बुद्ध, महावीर,ईसामसीह ,मीरा,तुलसीदास, कबीरदास,तुकाराम,संत ज्ञानेश्वर के जीवन के संघर्ष सर्वविदित हैं । रमन महर्षि और रामकृष्ण परमहंस को कैंसर के कारण अत्याधिक शारीरिक कष्ट हुआ था । तो मन में यह विचार उठता ही है की आध्यात्म के राह पर चलने वाले क्या अन्य लोगों से अधिक कष्ट पाते हैं ?
आध्यत्मिकता में भ्रान्ति या विरोधाभास निम्न कारणों से देखा जाता है
- अक्सर लोग सोचते हैं आध्यत्मिकता का सफर शुरू करते ही सिर पर आनंद रूपी पुष्पों की बरसात होगी और क़दमों के नीचे समस्त सुखों के गलीचे बिछ जाएंगें । उनके जीवन की सभी समस्याएं एक झटके में सुधर जाएंगीं ।इंस्टेंट नूडल्स की भाँति अपेक्षित फल शीघ्र प्राप्त होता न देख साधक के मन में आध्यात्म की सार्थकता को लेकर संशय हो जाता है ।
- साधारण अवस्था से अधिक आध्यात्मिकता के मार्ग पर चलने वालों के जीवन में अधिक विपत्ति,कष्ट ,कलह , रोग,दुःख देखा जाता है उसका क्या कारण है ?
- जब आध्यात्मिकता के मार्ग पर भी शारीरिक और मानसिक कष्ट मिलते ही हैं तो इस मार्ग पर चला ही क्यों जाए ?
आध्यात्म क्या है ?
अंतःकरण का परिमार्जन और परिष्कार ही आध्यात्म है ।
साधारण शब्दों में कह सकते हैं की अध्यात्म का अर्थ है आपने आप को जानो, अपने को समझो और अपने को सुधारो । बाँकी सत्संग,चिंतन, कथा-कीर्तन, स्वाध्याय ,ध्यान ,धारणा , योग ,मन्त्र जाप, भक्ति, आदि केवल मन को निर्मल और परिष्कृत करने के तरीके मात्र हैं |
आपने वास्तविक स्वरूप को समझाना ही अध्यात्म है । जिस प्रकार से एक किरण सूर्य का अंश होती हुई भी उससे पृथक दिखाई देती उसी प्रकार आत्मा परमात्मा का अंश होते हुए भी पृथक जान पड़ती है । आत्मा का ज्ञान या आत्म- सक्ष्ताकार ही परमात्मा को जाना है या ईश्वर दर्शन है ।
क्या ईश्वर कष्ट देते हैं ?
ईश्वर एक साक्षी तत्व है , वे प्राणियों के दैनिक काम काज में हस्तक्षेप नहीं करते है । भगवान अपनी इच्छा से किसी को दंड या पुरस्कार नही देते हैं । ईश्वर ने सर्वत्र स्वसंचालित व्यवस्था की है जिसमें प्रत्येक प्राणी अपने कर्मानुसार ही अच्छे या बुए फल प्राप्त करता है ।
मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है लेकिन उसके परिणाम भोगने की श्रृंखला से मजबूती से जकड़ा हुआ है यही ईश्वरीय नियम है, ईश्वरीय व्यवस्था है । जब तक कारण शरीर में अंकित संस्करों के सूक्ष्म फलों का न भोगा जाए तब तक अंतकरण के ऊपर मैल की परत जमी रहती है ।
इस जन्म के ज्ञात पापों से लेकर जन्म जन्मों तक के अज्ञात पापों का निराकरण जरुरी है । कपड़े की रंगाई से पहले धुलाई जरुरी है । इसलिए आत्मिक प्रगति में अभिवर्धन [पोषण] से भी जरुरी परिशोधन [सफाई ]है । अपनी गतिविधियों को सुधारा जाए , गुण स्वाभाव कर्म को सुधारा जाए ।
आध्यात्म में अंतर्मन की सफाई और सुधार की क्या आवश्यकता है ?
वस्तुतः हम जो भी कर्म करते हैं उसका सूक्ष्म प्रभाव हमारी आत्मा पर पड़ता है । हमारी आत्मा के चारो और स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर के तीन आवरण हैं । हम जो भी कार्य करते हैं उसका प्रभाव स्थूल -शरीर तक सिमित नहीं रहता है बल्कि छनकर सूक्ष्म शरीरों तक चला जाता है । जैसे संगीत रिकॉर्डिंग में कितने ही प्रकार के वाद्य - यंत्रों का प्रयोग किया जाए लेकिन रिकॉर्ड में उनके स्थूलता की अवश्कता नही पड़ती केवल सार रूपमें सभी ध्वनियां रिकॉर्ड में अंकित हो जाती है उसी प्रकार से मृत्यु के पश्चात किये गए कर्मों के सूक्ष्म भाग जिन्हें संस्कार भी कहा जाता है आत्मा के साथ साथ चलते हैं । जीवन में ये संस्कार ही अच्छे या बुरे फल उत्पन्न करते हैं |
आत्मिक मार्ग में परिशोधन की प्रक्रिया में अंतःकरण में जन्मों जन्मों के जमे हुए कुसंस्कार और उनके फल तेजी से निकलने लगते हैं ,जब लोगों को लगता है की आध्यतम मार्ग कष्टों और काँटों से भरा हुआ है । लेकिन दंड भुगतने, क्षतिपूर्ति करने और भविष्य में ऐसी गलती न करने का संकल्प ले कर आगे बढ़ने से आत्म सुधार का और अँधेरे को प्रकाश में बदलने का अवसर मिलता है ।यह उसी प्रकार है , जैसे आप एक बड़े हाल की सफाई हाथों में झाड़ू लेकर करो जो एक धीमी प्रक्रिया है , या वैक्यूम क्लीनर लेकर सफाई करो जो सफाई की एक तीव्र प्रक्रिया है या अन्य उन्नत विकसित यंत्रों के माध्यम से तीव्रतम गति से सफाई करो । आध्यात्म भी अंतःकरण की सफाई की एक तीव्रतम प्रक्रिया है ।
परमात्मा तो स्वयं उपलब्ध है उसे पाने के लिए कुछ नहीं करना होता है । करने की बात केवल इतनी है जो बेकार है गैर जरुरी है जो जो अपने भीतर भर लिया है उसे निकाल कर फेंक देना , यही अंतर्मन का परिशोधन है, अंतःकरण की शुद्धि है , इसके पश्चात ही आत्मा का अविनाशी और अविचल स्वरूप का ज्ञान हो पता है । अपनी आत्मा को जानना ही परमात्मा को जानना है ।
अध्यात्म के मार्ग पर कष्ट क्यों होते हैं ?
- आध्यत्मिक मार्ग में अंतःकरण अपने ऊपर जमा विजातीय द्रव्यों को निकाल फेंकने के लिए अत्यंत व्यग्र हो जाता है । तब हमारी अन्तःचेतना ऐसी स्थिति, परिस्थिति या वातावरण का तेज़ी से निर्माण करने में लग जाती जिनके द्वारा दंड का कार्य जल्दी जल्दी पूरा हो सके । और अंतःकरण शुद्ध हो सके । इन्ही के चलते कभी कभी लगता है जैसे शारीरक, मानसिक , पारिवारिक, सामजिक विपत्तियों का पहाड़ ही टूट पड़ा हो ।
- आजकल अंदर से पापात्मा और बाहर से धर्मात्मा दिखने का काफी प्रचलन हो गया है । एक अज्ञानी व्यक्ति अपराध करे तो उसे उतना बड़ा दंड नहीं मिलेगा जितना एक नैतिक और चरित्रिक रूप से गिरे हुए आध्यत्मिक मार्ग पर चलने वाले इंसान को मिलेगा ।
- कई बार आध्यत्म के मार्ग पर चलने वाले लोग स्वेच्छा से लोक कल्याण और आत्मोन्नति के लिए नाना प्रकार के दुःख उठाते हैं , जिन्हें दुष्कर्मों का फल नहीं कहा जा सकता है । जैसे कहा जाता है की राम कृष्ण परमहंस करुणा के वशीभूत होकर लोगों के रोगों को अपने शरीरी में धारण कर लेते थे ।
जब अध्यात्म के मार्ग पर इतना कष्ट है तो इस पर चला ही क्यों जाए
क्या एक डॉक्टर या उसके परिवार के सभी लोग यह कह सकते हैं की वे कभी बीमार नहीं पड़ेंगें ?क्या इस डर से लोग चिकित्सक का व्यवसाय या पढ़ाई छोड़ देते हैं | अतः अध्यात्म के मार्ग पर आने वाले दुखों , विपत्तियों को ईश्वर का कोप या परीक्षण न समझ कर आत्मशोधन की प्रकिया मात्र समझना चाहिए और निरंतर इस पथ बढ़ना चाहिए । आपने आत्मस्वरूप को पहचानना ही परमात्मा को उपलब्ध होना है ।
आध्यात्म के मार्ग पर विपत्ति आये तो अपने को पापी,अभागा या इसमें ईश्वर का अन्याय न सोच कर आपने सत्यता की परीक्षा देकर स्वर्ण के समान चमकाने वाले दुःख मात्र ही समझना चाहिए । हो सकता है ,उस कष्ट की तह में कोई ऐसा लाभ छुपा हो जो हमारा अल्पज्ञ मस्तिष्क ठीक ठीक रूप से पहचान न सका हो ।
द्वारा
गीता झा