Monday, October 20, 2014

माई री मैं कासे कहूँ पीर अपने जिया की


माई री मैं कासे कहूँ पीर अपने जिया की
ओस नयन की उनके मेरी लगी को बुझाए ना
तन - मन भिगो दे आके ऐसी घटा कोई छाए ना
मोहे बहा ले जाए ऐसी लहर कोई आए ना
 
ओस नयन की उनके मेरी लगी को बुझाए ना
पड़ी नदिया के किनारे मैं प्यासी
....
माई री मैं कासे कहूँ पीर अपने जिया की
पी की डगर में बैठे मैला हुआ रे मोरा आँचरा
कोई जो देखे मैया प्रीत का वासे कहूं 
माजरा
मुखड़ा है फीका-फीका नैनों में सोहे नाहीं काजरा
पी की डगर में बैठा मैला हुआ रे मोरा आँचरा
लट में पड़ी कैसी बिरहा की माटी
.....
माई री मैं कासे कहूँ पीर अपने जिया की
आँखों में चलते फिरते रोज मिले पिया बावरे
बैंयाँ की छैयाँ आके मिलते नहीं कभी साँवरे
दुख ये मिलन का लेकर काह करूँ कहाँ जाउँ रे
आँखों में चलते फिरते रोज मिले पिया बावरे
पाकर भी नहीं उनको मैं पाती
....
माई री मैं कासे कहूँ पीर अपने जिया की


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