यह बात निर्विवाद है की औरंगजेब जीवन के कई पहलुओं में आदर्श इंसान था । उसके समकालीन उसे शाही चोगा पहना हुआ दरवेश कहते थे । सादगी पसंद औरंगज़ेब लेखनी और तलवार दोनों में दक्ष था । दुर्भाग्यवश उसका स्वाभाव बहुत अविश्वासी था । आपने राजकाल के आरम्भ में उसने अपने भाइयों को तो ठिकाने लगा दिया किन्तु अपने पुत्रों पर भी उसका विश्वास नहीं था । औरंगज़ेब ने सदैव अपने पुत्रों से दुरी बना कर रखी और उनकी हरेक गतिविधि को शंका की दृष्टि से देखा । कहा जाता है मृत्यु शय्या पर औरंगजेब ने अपने पुत्रों को दुखभरे और मार्मिक पत्र लिखे थे । अलमगीर यानि खुदा के बन्दे के नाम से औरंगज़ेब को मशहूर कर दिया गया जिसका मुख्य कारण उसकी धर्मान्धता थी। पर सत्य यह हैं की हिन्दुओं पर अत्याचार करने के कारण होने वाला अपराध बोध उन्हें अपनी मृत्यु के समय भी कचोट रहा था ।
शाहजादे आजम को उन्होंने लिखा ……………..
… अब मैं बूढ़ा और दुर्बल हो रहा हूँ । जब मेरा जन्म हुआ था तो मेरे निकट बहुत से व्यक्ति थे किन्तु अब मैं अकेला जा रहा हूँ । मैं नहीं जानता मैं क्या हूँ और इस संसार में क्यों आया हूँ । मुझे आज उन क्षणों का दुःख है जिन क्षणों में मैं अल्लाह की इबादत को भुला रहा । मैंने देश अथवा इसकी प्रजा के लिए भला नहीं किया । मेरा जीवन ऐसे ही निरर्थक बीत गया । अल्लाह मेरे ह्रदय में निवास करता था लेकिन मेरी आँखों के आगे छाये हुए अज्ञान के अँधेरे के कारण में उसकी ज्योति नहीं देख सका । जीवन नाशवान है और बीता हुआ क्षण कभी लौट कर नहीं आता है । भविष्य में मेरे लिए कोई आशा नहीं रह गई है । ज्वर अब उतर गया है किन्तु मुझ में अब मांस और सूखी चमड़ी के अतिरिक्त कुछ रह नहीं गया है । जैसी मेरी दशा है अल्लाह से बिछुड़ा हुआ और जिसके ह्रदय को कोई शांति नहीं है । उसी प्रकार सेना अब निराश हो गई है और उसमें कोई उत्साह नहीं रह गया है । उन्हें नहीं पता कि उनका सम्राट है भी या नहीं । इस संसार में मैं कुछ भी लेकर नहीं आया किन्तु अब पापों का भारी बोझ लेकर जा रहा हूँ । मैं नहीं जानता मेरे लिए अल्लाह ने क्या दंड सोच रखा है । यद्यपि मुझे अल्लाह की दयालुता में पूर्ण यकीन है फिर भी मैं दूसरों पर क्या विश्वास करूँ ? जब मेरी खुद से ही कोई आशा नहीं रही तो में दूसरों से क्या आशा रखूँ ?खैर जो होगा हो, मैंने तो अपनी नाव पानी में छोड़ दी है । विदा , विदा ....... ,अलविदा ।
कामबख़्श को भी उन्होंने एक पत्र लिखा ………………
मेरे रूह की रूह .... अब मैं आ रहा हूँ । मुझे तुम्हारी निस्सहाय अवस्था पर दुःख है । किन्तु क्या लाभ ? जितने भी दुःख मैंने दिए हैं प्रत्येक पाप जो मुझसे हुआ है और जो भी बुरा मुझसे हुआ है उसका परिणाम मैं स्वयं भोगूँगा । कैसा आश्चर्य है कि जब मैं इस संसार में जन्मा कुछ भी साथ नहीं लाया और अब पापों का एक महान काफिला आपने साथ ले जा रहा हूँ । मैं जिधर देखता हूँ मुझे अल्लाह की रहनुमाई के सिवाय कुछ नहीं दिखता है । तुम्हें मेरी अंतिम इच्छा माननी चाहिए । ऐसा नहीं होना चाहिए कि मुसलमान मारे जाएँ और इनका श्राप अल्लाह के बेकाम प्राणी के सर पर पड़े । मैं तुम्हें और तुम्हारे पुत्रों को अल्लाह के संरक्षकता में छोड़ते हुए विदा मांगता हूँ । मैं बुरी तरह से दुखी हूँ । शायद तुम्हारी बीमार माँ भी मेरे साथ ही मर जाए । अल्लाह की शांति तुम्हें प्राप्त हो …………….
औरंगज़ेब के चरित्र और कार्यों का कठोर अलोचक भी इस पश्चाताप के दुःख की गहराई को मानने से और मृत्यु शय्या पर अकेले पड़े इस वृद्ध पुरुष के साथ सहानुभूति किये बिना नहीं रह सकता है ।
मरने से पहले सम्राट औरंगज़ेब आलमगीर ने जो वसीयतनामा तैयार करवाया था उस वसीयत की धाराओं को देखकर यह पता चलता है कि सम्राट को अपने अंतिम दिनों में अपने पिता को क़ैद करने, अपने भाइयों को क़त्ल करने और प्रजा का शोषण करने पर भीषण मानसिक खेद और पश्चाताप था।
औरंगज़ेब आलमगीर के वसीयतनामा की मुख्य धाराएँ ये हैं –
(1) बुराइयों में डूबा हुआ मैं गुनहगार, वली हज़रत हसन की दरगाह पर एक चादर चढ़ाना चाहता हूँ, क्यूंकि जो व्यक्ति पाप की नदी में डूब गया है, उसे रहम और क्षमा के भंडार के पास जाकर भीख माँगने के सिवाय और क्या सहारा है। इस पाक काम के लिए मैंने अपनी कमाई का रुपया अपने बेटे मुहम्मद आज़म के पास रख दिया है। उससे लेकर ये चादर चढ़ा दी जाय।
(2) टोपियों की सिलाई करके मैंने चार रूपये दो आने जमा किये हैं। यह रक़म महालदार लाइलाही बेग के पास जमा है। इस रक़म से मुझ गुनहगार पापी का कफ़न ख़रीदा जाय।
(3) कुरान शरीफ़ की नकल करके मैंने तीन सौ पाँच रूपये इकट्ठा किये हैं। मेरे मरने के बाद यह रक़म फ़क़ीरों में बाँट दी जाय। यह पवित्र पैसा है इसलिये इसे मेरे कफ़न या किसी भी दूसरी चीज़ पर न ख़र्च किया जाय।
(4) नेक राह को छोड़कर गुमराह हो जाने वाले लोगों को आगाह करने के लिये मुझे खुली जगह पर दफ़नाना और मेरा सर खुला रहने देना, क्यूंकि उस महान शहन्शाह परवरदिगार परमात्मा के दरबार में जब कोई पापी नंगे सिर जाता है, तो उसे ज़रूर दया आ जाती होगी।
(5) मेरी लाश को ऊपर से सफ़ेद खद्दर के कपड़े से ढक देना। चददर या छतरी नहीं लगाना, न गाजे बाजे के साथ जुलुस निकालना और न मौलूद करना।
(6) अपने कुटुम्बियों की मदद करना और उनकी इज्ज़त करना। कुरान शरीफ़ की आयत है – प्राणिमात्र से प्रेम करो। मेरे बेटे! यह तुम्हें मेरी हिदायत है। यही पैग़म्बर का हुक्म है। इसका इनाम अगर तुम्हें इस ज़िन्दगी में नहीं तो अगली ज़िन्दगी में ज़रूर मिलेगा।
(7) अपने कुटुम्बियों के साथ मुहब्बत का बर्ताव करने के साथ-साथ तुम्हें यह बात भी ध्यान में रखनी होगी कि उनकी ताक़त इतनी ज़्यादा न बढ़ जाय कि उससे हुकूमत को ख़तरा हो जाय।
(8) मेरे बेटे! हुकूमत की बाग़डोर मज़बूती से अगर पकड़े रहोगे तो तमाम बदनामियों से बच जाओगे।
(9) बादशाह की हुकूमत में चारों ओर दौरा करते रहना चाहिये। बादशाहों को कभी एक मुक़ाम पर नहीं रहना चाहिये। एक जगह में आराम तो ज़रूर मिलता है, लेकिन कई तरह की मुसीबतों का सामना करना पड़ता है।
(10) अपने बेटों पर कभी भूल कर भी एतबार न करना, न उनके साथ कभी नज़दीकी ताल्लुक रखना।
(11) हुकूमत के होने वाली तमाम बातों की तुम्हें इत्तला रखनी चाहिये – यही हुकूमत की कुँजी है।
(12) बादशाह को हुकूमत के काम में ज़रा भी सुस्ती नहीं करनी चाहिये। एक लम्हे की सुस्ती सारी ज़िन्दगी की मुसीबत की बाइस [सबब ] बन जाती है।
औरंगज़ेब आपने सम्राज्य को अपने पुत्रों में विभाजित कर देना चाहता था । उसका उद्देश्य उत्तराधिकार के युद्ध की पुनरावृति को रोकना था । लेकिन यह प्रकृति की विडम्बना ही थी की उसकी यह इच्छा पूरी नहीं हो सकी । सिंहासन के लिए यद्ध की परम्परा का निर्वाह उसकी संतानों ने भी किया । उसके तीन पुत्र मुहम्मद मुअज्जल ,मुहम्मद आजम और कामबख़्श के मध्य उत्तराधिकार का युद्ध हुआ । युद्ध में उनका बड़ा पुत्र शाहजादा मुअज्जल विजयी हुआ । उसने अपने भाई मुहम्मद आजम को 18 जून 1707 ई o को जजाऊ नामक स्थान पर तथा कामबख़्श को हैदराबाद में जनवरी 1709 ई o में मार डाला ।
औरंगाबाद के निकट खुल्दाबाद नामक छोटे से गाँव में जो औरंगज़ेब आलमगीर का मक़बरा बनाया गया, उसमें उसे सीधे सादे तरीक़े से दफ़न किया गया। उसकी क़ब्र कच्ची मिटटी की बनाई गई। जिस पर आसमान के सिवाय कोई दूसरी छत नहीं रखी गई। क़ब्र के मुजाविर उसकी क़ब्र पर जब तब हरी दूब लगा देते हैं। इसी कच्चे मज़ार में पड़ा हुआ भारत का यह सम्राट प्रायश्चित की आग में जलते हुए आज भी परमात्मा से रूबरू होने की प्रतीक्षा में है।
हमारे ज़मीर की आवाज़, अंदर से आनेवाली एक गवाही है। जीवन के किसी न किसी मोड़ पर हमारा ज़मीर हमें एक कठघरे में लाकर खड़ा कर देता है और यह फैसला सुनाता है कि हमारे काम, हमारा रवैया और हमारे चुनाव सही थे या गलत ! आलमगीर औरंगज़ेब फिर भी खुशनसीब था की उसका ज़मीर देर सवेर कभी तो जगा लेकिन आज तो लगता है गैरत - खुद्दारी - ईमान बाज़ार में अपने वाजिब कीमत का इंतज़ार करते हेु खरीद-फ़रोख्त की चीज़ बन कर रह गए हैं और ज़मीर - अंतरात्मा की आवाज -conscience परमानेंट एनेस्थीसिया पा कर चिरनिद्रा में सो चुके हैं ।
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