द्यूत में पराजित होने पर पांडवों को बारह वर्ष जंगल में तथा तेरहवाँ वर्ष अज्ञातवास में बिताना था | वनवास में द्रौपदी से मिलने के लिए कृष्णपत्नी सत्यभामा गयीं। उन्होंने पाया कि इस अभावग्रस्त और कष्टसाध्य स्थिति में भी द्रौपदी बहुत प्रसन्न एवं स्वस्थ थीं। सत्यभामा ने इसे आश्चर्यपूर्वक देखा और पूछा-" हम महलों में रहकर भी सुखी नहीं हैं। तुम वनवास में भी प्रसन्न हो। सुख की कुँजी जो तुमने पाई, सो हमें भी बता दो।”
द्रौपदी न केवल रूप लावण्य की धनी थी अपितु बुद्धि और तेज़ में अतिविशिष्ट थी । द्रौपदी ने अत्यंत सौम्य स्वर से कहा- “दुःखेन साध्वी लभते सुखानि” जो दूसरों के लिए कष्ट उठाने को तैयार रहता है उसे सदा सुख ही सुख मिलता है।
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