कुंडली के पंचमभाव
से ईश्वर प्रेम
और नवम भाव
से धार्मिक कर्मकांड
, अनुष्ठान का
विचार होता है
। जब नवम
और पंचम दोनों शुभलक्षण युक्त
हों तभी अनुष्ठान
क्रिया भक्ति के साथ
होती है ।
पंचम भाव प्रगाढ़
भक्ति का द्योतक है ।
जब पंचम और
नवम भाव में
सकारत्मक सम्बन्ध बनता
है बनता है
तो
जातक भक्ति और
अनुष्ठान दोनों के साथ
रहने से उच्च कोटि
का साधक बनता
है ।
दशम स्थान कर्मस्थान होता
है और सन्यास
योग भी इंगित
करता है, यदि
पंचमेश और नवमेश
का नवम
भाव या नवमेश
से सम्बन्ध हो
तो साधना में
उत्कृष्टता आती
है ।
पंचम में पुरुष
ग्रह उपस्थित हो
या पुरुष ग्रह
की दृष्टि पड़ती
हो तो जातक
पुरुष देवता की
उपासना करता है
। पंचम समराशि
हो और उसमें चण्द्रमा
या शुक्र बैठे
हो या इन
दोनों में से
किसी की दृष्टि
पड़ती हो तो
जातक किसी स्त्री
शक्ति की उपासना
करने वाला होता
है । यदि
सूर्य पंचम स्थान
पर हो दृष्टि
हो तो जातक
सूर्य का उपासक
होता है ।
यदि चण्द्रमा व
सूर्य पंचम भाव
में बैठे हों
या पंचम भाव
पर दृष्टि डालते
हों तो जातक
अर्द्ध -नारीश्वर स्वरुप की साधना
करने वाला
होता है । यदि
पंचम भाव पर
मंगल स्थित हो
या दृष्टि हो
तो जातक कर्तिकेय
, बुद्ध पंचम भव
में स्थित हो
या दृष्टि डाले
तो श्री विष्णु
, पंचम भाव में
बृहस्पति स्थित हो या
दृष्टि डाले तो
जातक भगवान शंकर की
उपासना करने वाला
होता है ।
यदि शनि या
राहु और केतु
का समबन्ध पंचम
भाव या पंचमेश से हो
तो जातक तांत्रिक
क्रिया करने वाला या नकरात्मक शक्तियों
को मानने वाला होता
है ।
शनि का समबन्ध
यदि पंचम भाव
या विशेष कर
नवम भाव से
हो तो जातक
कठोर तपस्या करने
वाल होता है
ऐसा जातक धर्मिक
आडम्बर और जातिगत
भेदभाव को न
मानने वाला और
स्पर्शदोषादि को ना
मानने वाला होता
है । जातक
प्रायः रीती-रिवाजों
का विरोधी और
दर्शन को अपनी
तार्किकता पर घिसने
वाला होता है
।
रामकृष्ण परमहंस की कुंडली
पंचमेश बुद्ध , शनि के क्षेत्र , लग्न में स्थित है ।
लग्नेश शनि नवम भाव में स्थित है ।
पंचम भाव स्थित बृहस्पति की लग्न , लग्नेश, पंचमेश और नवम भाव पर दृष्टि है ।
नवमेश शुक्र उच्च का दूसरे भाव में स्थित है ।
सन्यास कारक भाव दशमेश उच्च का होकर मोक्ष के भाव 12 वें भाव में स्थित है ।
द्वारा
गीता झा
No comments:
Post a Comment